यौन सम्बन्धो की आयु सीमा और सामाजिक हकीकत (jagaran junction forum )
badalte rishte
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यौन संबंधों की आयुसीमा बढाने का प्रस्ताव क्या आया कई लोगों ने इसके खिलाफ मत देना शुरू कर दिया. जजसाहब भी बोल पड़े की क्या जरूरत है? यदि जरूरत नहीं है तो फिर सोलह ही क्यों चौदहवर्ष कर दें. क्या जज साहब को ये मंजूर होगा? कहीं जज साहब उन १९० लोगों के तोसहयोगी नहीं जिन्हें सोशल साइट्स के जरिये संपर्क बढ़ाकर १२ और १४ वर्ष की लड़कियोंसे सम्बन्ध बनाने के कारण गिरफ्तार किया गया है. जज साहब इसे भारतीय समाज केपिछड़ेपन कि तरह देखते हैं. कल को जज साहब बैंक से कर्ज लेने वालों के लिए भी कहसकते हैं कि यह भारतीय समाज के भिखारी हैं. क्या जज साहब को बिमारी के बढ़ने सेपहले रोकने में लज्जा आती है? इसलिए मेरा मानना है की जज साहब के निजी मत को निजीही रहने दिया जाए उसे समाज का मत बनाने का प्रयास ना कियाजाए. देश और समाज कीप्रगति के पथ पर इस निर्णय को इतना तूल दिए जाने की आवश्यकता नहीं है, सिर्फ समस्याकी जड़ सजा के प्रावधानों पर विचार किया जाना चाहिए. जिससे की मासूमों को पूरीजिंदगी एक साथ दो सजाएं ना भुगतनीपड़े. देश के कईहिस्सों में आज भी बाल विवाह संपन्न हो रहे हैं. जब इस तरह का क़ानून प्रभावी होगातो अवश्य ही उन पर भी अपरोक्ष रूप से रोक लगेगी. हमारे देश और समाज की सभ्यता कभीभी विवाह पूर्व के शारीरीक संबंधो को स्वीकार नहीं करती और जब हमारे यहाँ विवाह कीउम्र अट्ठारह और इक्कीस वर्ष है तो फिर किस तरह से १६ वर्ष की उम्र के शारीरीकसंबंधो को मान्यता दी जा सकती है. उम्र की समस्या कभी भी समझदारों के लिए नहीं रहीहै. समस्या कम पढ़े लिखे और नादानों की ही रही है. जहां बाल विवाह देश में जनसंख्यावृद्धि के कारण रहे हैं वहीँ बाल मातृत्व की समस्या भी रहे हैं. हम जहां अपने सोलाहवर्ष के बच्चों को सिर्फ पढ़ाई में व्यस्त रखना चाहते हैं और उन पर कोई भी अतिरिक्तबोझ डालने से परहेज करते हैं वहीँ इस उम्र में हमें इन बच्चों पर एक और बच्चे काबोझ डालना क्या ये हमें मंजूर है? मै इसलिए यह कह रहा हूँ की इसका सीधा सम्बन्ध कमउम्र के यौन संबंधों से है. जहां तक युवतियों को इसके सहारे समाज में सुरक्षितवातावरण देने की बात है तो वह सिर्फ बालविवाह से मुक्ति तक ही सीमित हो सकता हैकिन्तु इससे साथ पढने और गलतियां करने पर रोक की सोच रखना शायद हमारी अधूरी सोच हीकहलाएगी. आयु सीमा बढाने के प्रस्ताव को एक तरफा कहें या कि सामजिक जरूरत मगर यहनिर्णय पुरे देश के हित में है. आज हम सभी जानते हैं कि देश अब और एक भी मानव काबोझ देश कि परिस्थिति अनुसार सहने कि स्थिति में नहीं नजर आता तब यदि इस तरह केनिर्णय लिए भी जाते हैं तो फिर विरोध क्यों? विरोध करने वालों ने कभी उम्र कम हीरहने देने के लाभ नहीं बताये वे इसके लाभ भी बतायें, क्योंकि मेरी नजर में इसका कोईलाभ दूर दूर तक नजर नहीं आता. ऐसे क़ानून से पुरुषों के हित अवश्य ही बाधित होंगेकिन्तु विगत कई दशकों से पुरुषों ने स्त्रियों पर जो अत्याचार किये हैं उसकेप्रायश्चित के लिए अब थोड़ा त्याग भीकरें. और अंत में मैयही कहूंगा की क़ानून तो कई बनाए जाते हैं किन्तु उनकी सार्थकता केवल उनको लागूकरवाने वालों पर ही निर्भर है. क़ानून बना देना ही समस्या का हल कभी नहीं हो सकता.
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