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क्या ये आसान हैं की हम बीमार ही न हों? मुझे तो बिलकुल भी नहीं लगता. दिनभर हम कई जगह जाते हैं कई लोगों से मिलते हैं, बाजार में होटलों में खाते हैं,फिर कैसे संभव है की हम अपने आप को बीमारियों से बचाए रखें.यथासंभव हमारी कोशिश होती है की साफ सफाई देखकर ही कहीं भी खाते हैं. घरों में साफ सफाई के आलावा उबला पानी पीते हैं या तो किसी फिल्टर का पानी पीते हैं.
मगर एक दिहाड़ी मजदूर के बारे में सोचो क्या उसके लिए ये सब
संभव है? बिलकुल भी नहीं. किसी पेड़ की छाँव में, किसी टूटेसे मकान में या किसी बनते हुए मकान में रहने वाला ये व्यक्ति कहाँ से उबला पानी पीएगा?जिसके नसीब में खाने से अधिक धुल मिट्टी फांकना लिखा है कैसे वह अपने आप को बीमारी से बचा कर रख सकता है.
बीमार तो उसको होना ही है और आज बीमार होने का मतलब है यदि कुछ जेब में है तो निकालो वर्ना मरने के लिए तैयार रहो. ये कोई थोथी सोच नहीं हकीकत है और इसको साकार किया है सवाई मानसिंह अस्पताल के डाक्टरों ने.
जहाँ तीन ऐसे मरीजों को जो गंभीर रूप से बीमार थे उनको मात्र इसलिए अस्पताल से बहार फिकवा दिया की उनका कोई करने वाला नहीं था उनके परिवार वाला कोई उनकी देखभाल या उनके लिए दवाई लेन वाला नहीं था. जब उनमे से एक मरीज की चार दिन तक वहीँ पड़े पड़े जान चली गयी और कुछ हंगामे की आशंका दिखी तो डाक्टरों ने दुसरे दोनों मरीजों को पुनह अस्पताल में भर्ती कर लिया.
एक तरफ सरकार प्रतिवर्ष सरकारी अस्पतालों में दवाइयों के लिए लाखों करोड़ों रुपये खर्च करती है. कई नए नए उपकरण खरीदती है डाक्टरों पर मोटी मोटी तनख्वाह खर्च करती है की आम आदमी जो किसी भी प्रकार से अपनी बीमारी पर पैसा खर्च करने की स्थिति में नहीं है उसको मुफ्त में पूरा इलाज मिले. मगर इन डाक्टरों को क्या तकलीफ होती है की ऐसे मरीजों को अस्पताल के बहार ही फिकवा देते हैं.सही मायने में तो सारे सरकारी अस्पताल सिर्फ इन्ही जैसे लोगों के लिए बने हैं. फिर इनके साथ ही ऐसा सुलूक क्यों? सक्षम व्यक्ति के लिए तो शहर भर में कई अस्पताल कुकुरमुत्ते की तरह खुले हुए हैं यदि आपका दायाँ हाथ दुःख रहा है तो दूसरा अस्पताल और बयां दुःख रहा है तो दूसरा,आपकी जेब में पैसे के हिसाब से अस्पताल उपलब्ध हैं. अस्पताल में जाते ही पहले दस हजार जमा कराओ,जब डाक्टर को सुचना मिल जाएगी की हाँ पैसा जमा हो गया है तो फिर वो इलाज शुरू करेगा वर्ना आपकी तरफ देखेगा भी नहीं. यदि कोई मरीज अस्पताल में मर भी जाये तो पहले उसके पुरे बिल चुकता करने की हिदायत दी जाती है जब तक बिल न चुकाओ तो मरीज की लाश ले जाना तो दूर देखने तक को तरसा दिया जाता है.
चिकित्सा पूरी तरह से व्यवसायीक पेशा हो चूका है हर डाक्टर दुसरे के साथ होड़ लगाकर बैठा है और आम आदमी लुटा जा रहा है. मगर चिंता उस आदमी की है जो दो वक्त की रोटी भी ठीक से नहीं खा सकता, अपना इलाज कैसे कराये? क्यों सरकार द्वारा इतना रूपया उसके नाम पर खर्च करने के बाद भी उसे कहना पड़ रहा है हे भगवान बचाले.
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