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कौन हैं देवार?

शब्दार्थ
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अक्षय दुबे ‘साथी’
देवार जाति पर एक रिपोर्ट
देवार गीत,देवार नृत्य और देवार वाद्ययंत्रो की विशिष्ट पहचान और परंपरा एक समय छत्तीसगढ़ का प्रमुख आकर्षण रहा, लेकिन अब ना सिर्फ ये कला विलुप्ति के कगार पर है बल्कि स्वयं देवार जाति के लोग भी संकट के दौर से गुज़र रहे हैं।
छत्तीसगढ़ में लाखो की संख्या में रह रहे बंजारा और कलाकार जाति देवार जिनकी स्थिति भारत के आजाद होने और पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद सुधरने की बजाय और भी बदहाल होती रही है। एक ओर सरकारें स्वच्छ भारत अभियान का ढिंढोरा पीट रही है वहीं समूची  देवार जाति घुरे में रहने के लिए विवश हैं।
इनकी बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिलासपुर जिले के तखतपुर कस्बे में रहने वाले देवारों की बस्ती तक पहुँचने के लिए कोई सड़क नहीं है,जबकि यह  नगर पालिका के  दायरे में आता है। यहाँ रहने वाले दारा सिंह देवार बताते हैं ‘’कि यहाँ साफ सफाई तो दूर पूरे शहर भर की गंदगी को यहीं डंप किया जाता है। सड़क के उस पार जहां पानी की उचित व्यवस्था है लेकिन हमारी बस्ती का कोई सुध नहीं लेता क्योंकि हम लोग देवार हैं।‘’
अनुसुचित जाति में आने वाले इस समुदाय के बारे में एक जनश्रुति है कि पहले ये गोंड राजा के दरबार में नाच गा कर अपनी कला के जरिए जीवन यापन किया करते थे लेकिन किसी कारणवश एक दिन इन्हें राजा ने  दरबार से निकाल दिया, जिसके बाद वे घुमंतू हो गए।
दारा सिंह देवार अपने समुदाय का परिचय देते हुए कहते हैं कि  ‘’चिरई म सुन्दर रे पतरेंगवा, सांप सुन्दर मनिहार।राजा सुन्दर गोंड रे राजा,जात सुन्दर देवार।‘’
लेकिन रेशमा देवार अपने समुदाय की तकलिफों को प्रगट करती हुई देवार गीत की  एक पँक्ति सुनाती है “आज कहाँ डेरा बाबू काल कहाँ डेरा,नदिया के पार माँ बधिया के डेरा,तरी करे सांय-सांय रतिहा के बेरा”(आज हमारा डेरा कहाँ है,कल कहाँ होगा,नदी के किनारे सुअर का डेरा होगा जहाँ रात सांय-सांय करती है) इन उदासतम पँक्तियों के द्वारा आप कुछ हद तक इनकी दिक्कतों से रूबरू हो सकते हैं।
कला को ही प्रमुख आजीविका बनाने वाले देवार गली-गली घूमकर नृत्य-गीत का प्रदर्शन किया करते थे। साथ ही गोदना (टैंटू) बनाने,रीठा की माला, सीलबट्टा बनाकर बेचने का काम भी करते थे। लोककला पर शोध करने वाले साहित्यकार संजीव तिवारी बताते हैं कि ‘’ऐसा नहीं है कि इनकी स्थिति सदैव दयनीय रही है,नाचा के उत्सव के समय में मंदराजी दाऊ से लेकर दाऊ रामचंद्र देशमुख तक ने इनकी कला को पहचाना और मान दिया। चंदैनी गोंदा के बैनर तले देवार डेरा का भव्य मंचन हुआ। हबीब तनवीर ने देवार बालाओं को नया थियेटर में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दी। महिलाओं की प्रभुत्व वाली नाचा (नृत्य) पार्टियाँ बनी जिसमें बरतनीन बाई,गजरा बाई,तारा बाई,गीता बाई,गुलाब बाई और मिर्चा बाई मुख्य नर्तकी और गायिकाएं थी। उसी दौर मे किस्मत डांसर पार्टी की संचालिका गायिका और नर्तकी किस्मत बाई छत्तीसगढ़ में बहुत मशहूर हुई।‘’ संजीव तिवारी चिंता जाहिर करते हैं कि ‘’सामंती और नागरी लोककला के बीच इन सब प्रगति के बावजूद देवारों का कोई संगठित स्वरूप सामने नहीं आ पाया।‘’
देवारों को संगठित कर उनके अधिकारों की बात करने वाली लीला बाई बताती हैं कि ‘’जागरूकता के अभाव में देवार सरकारी सुविधाओं के लाभ से हमेशा वंचित रहते हैं। जनप्रतिनीधि भी इनसे मुलाकात नहीं करते।‘’ लीला बाई बताती हैं कि ‘’अभी हम लोगों ने एक मोर्चा बनाकर नगरपालिका के दफ्तर की ओर कूच किया तब नगर पालिका अध्यक्ष ने हम लोगों को भगा दिया।‘’ वे सरकार पर आरोप लगाती हैं कि ‘’ऐसे दोयम दर्जे का बर्ताव ना केवल तखतपुर में बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में देवारो के साथ हो रहा है।‘’
इस घटना के द्वारा भी इस समुदाय के प्रति सरकार की बेरूखी को समझा जा सकता है। हाल ही में छत्तीसगढ़ की लता मंगेशकर के नाम से प्रसिद्ध किस्मत बाई देवार ने उचित इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। अस्सी के दशक में आकाशवाणी और दूरदर्शन के जरिए अपनी गीतों से पहचान बनाने वाली किस्मत बाई के परिजनों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे। परिजनों का आरोप है कि ‘’लकवाग्रस्त किस्मतबाई को सरकार द्वारा उचित इलाज मुहैय्या करवाई जाती तो उन्हें कम से कम ऐसी मौत नहीं मिलती।‘’
हालांकि  किस्मत बाई की मौत के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का बयान आया कि ‘’स्वर्गीय श्रीमती किस्मत बाई ने अपनी सुदीर्घ कला साधना के जरिए छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की संवेदनाओं को अपनी आवाज़ दी।‘’
हीना देवार बूढ़ी दादी की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि ‘’इन्हें स्वास्थ्यगत समस्या तो है ही लेकिन इनकी वृद्धा पेंशन की राशि भी इन तक नहीं पहुँच पाती।‘’ साथ  ही आठ साल के दिव्यांग बलराम के बारे में बताते हुए कहती हैं कि ‘’हमें इसके भविष्य की फिक्र है,हम तो अक्षम है ही, सरकार की भी कोई  सुविधा इसे अब तक नहीं मिली है, ना जाने आगे क्या होगा?’’
देवारों पर काम करने वाली लीलाबाई बताती हैं कि ‘’यहाँ के अधिकतर  बच्चे कुपोषण के शिकार हैं,आंगनबाड़ी भी दूर है इनके माँ-बाप कूड़ा करकट इकट्ठा करने और कबाड़ी का काम करते हैं जिसकी वजह से वे सुबह से शाम तक बाहर ही रहते हैं और बच्चे भगवान भरोसे बड़े होते हैं।‘’
इनकी बदहाल स्थिति के सवाल पर बिलासपुर के सांसद लखन लाल साहू कहते हैं कि ‘’मैं इन लोगों से मिलने के लिए बिल्कुल तैयार हूँ, इस घूमंतू जाति को लेकर एक बड़े प्रोजेक्ट की आवश्यकता है।‘’
लेकिन सवाल ये है कि आखिर क्यों सरकार और जनप्रतिनीधियों ने अब तक कोई पहल नहीं किया?
काँग्रेस की राज्यसभा सांसद छाया वर्मा कहती हैं कि ‘’पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद अधिकतम समय तक भाजपा का शासन रहा है,जिन्होंने इनकी कोई सुध नहीं ली। अब मैं  देवार जाति की स्थिति से राष्ट्रपति को अवगत कराऊँगी।‘’
पत्रकार शालिनी अवस्थी कहती हैं कि ‘’देवार जाति में शिक्षा और जागरूकता का व्यापक अभाव है जिसकी वजह से वे अपना स्थान सुनिश्चत नहीं कर पा रहे हैं। सरकार को चाहिए की जल्द से जल्द इनके लिए विशेष योजनाएँ चलाए।‘’
लीलावती भी काफी उदास होकर कहती हैं कि ‘’अगर इनकी सुध नहीं ली गई तो इस बार मैं वोट के बहिष्कार के लिए इन सबको संगठित करूंगी।‘’
सही मायनो में लीलाबाई और देवारों की ये उदासी हमारे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चिंता की लकीर है जिसे जल्द ही मिटाने की आवश्यकता है।
देवार गीत,देवार नृत्य और देवार वाद्ययंत्रो की विशिष्ट पहचान और परंपरा एक समय छत्तीसगढ़ का प्रमुख आकर्षण रहा, लेकिन अब ना सिर्फ ये कला विलुप्ति के कगार पर है बल्कि स्वयं देवार जाति के लोग भी संकट के दौर से गुज़र रहे हैं।

कचरे में देवार जीवन
कचरे में देवार जीवन

छत्तीसगढ़ में लाखो की संख्या में रह रहे बंजारा और कलाकार जाति देवार जिनकी स्थिति भारत के आजाद होने और पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद सुधरने की बजाय और भी बदहाल होती रही है। एक ओर सरकारें स्वच्छ भारत अभियान का ढिंढोरा पीट रही है वहीं समूची  देवार जाति घुरे में रहने के लिए विवश हैं।
इनकी बदहाली का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि बिलासपुर जिले के तखतपुर कस्बे में रहने वाले देवारों की बस्ती तक पहुँचने के लिए कोई सड़क नहीं है,जबकि यह  नगर पालिका के  दायरे में आता है। यहाँ रहने वाले दारा सिंह देवार बताते हैं ‘’कि यहाँ साफ सफाई तो दूर पूरे शहर भर की गंदगी को यहीं डंप किया जाता है। सड़क के उस पार जहां पानी की उचित व्यवस्था है लेकिन हमारी बस्ती का कोई सुध नहीं लेता क्योंकि हम लोग देवार हैं।‘’
अनुसुचित जाति में आने वाले इस समुदाय के बारे में एक जनश्रुति है कि पहले ये गोंड राजा के दरबार में नाच गा कर अपनी कला के जरिए जीवन यापन किया करते थे लेकिन किसी कारणवश एक दिन इन्हें राजा ने  दरबार से निकाल दिया, जिसके बाद वे घुमंतू हो गए।
दारा सिंह देवार अपने समुदाय का परिचय देते हुए कहते हैं कि  ‘’चिरई म सुन्दर रे पतरेंगवा, सांप सुन्दर मनिहार।राजा सुन्दर गोंड रे राजा,जात सुन्दर देवार।‘’
लेकिन रेशमा देवार अपने समुदाय की तकलिफों को प्रगट करती हुई देवार गीत की  एक पँक्ति सुनाती है “आज कहाँ डेरा बाबू काल कहाँ डेरा,नदिया के पार माँ बधिया के डेरा,तरी करे सांय-सांय रतिहा के बेरा”(आज हमारा डेरा कहाँ है,कल कहाँ होगा,नदी के किनारे सुअर का डेरा होगा जहाँ रात सांय-सांय करती है) इन उदासतम पँक्तियों के द्वारा आप कुछ हद तक इनकी दिक्कतों से रूबरू हो सकते हैं।
कला को ही प्रमुख आजीविका बनाने वाले देवार गली-गली घूमकर नृत्य-गीत का प्रदर्शन किया करते थे। साथ ही गोदना (टैंटू) बनाने,रीठा की माला, सीलबट्टा बनाकर बेचने का काम भी करते थे। लोककला पर शोध करने वाले साहित्यकार संजीव तिवारी बताते हैं कि ‘’ऐसा नहीं है कि इनकी स्थिति सदैव दयनीय रही है,नाचा के उत्सव के समय में मंदराजी दाऊ से लेकर दाऊ रामचंद्र देशमुख तक ने इनकी कला को पहचाना और मान दिया। चंदैनी गोंदा के बैनर तले देवार डेरा का भव्य मंचन हुआ। हबीब तनवीर ने देवार बालाओं को नया थियेटर में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ दी। महिलाओं की प्रभुत्व वाली नाचा (नृत्य) पार्टियाँ बनी जिसमें बरतनीन बाई,गजरा बाई,तारा बाई,गीता बाई,गुलाब बाई और मिर्चा बाई मुख्य नर्तकी और गायिकाएं थी। उसी दौर मे किस्मत डांसर पार्टी की संचालिका गायिका और नर्तकी किस्मत बाई छत्तीसगढ़ में बहुत मशहूर हुई।‘’ संजीव तिवारी चिंता जाहिर करते हैं कि ‘’सामंती और नागरी लोककला के बीच इन सब प्रगति के बावजूद देवारों का कोई संगठित स्वरूप सामने नहीं आ पाया।‘’
देवारों को संगठित कर उनके अधिकारों की बात करने वाली लीला बाई बताती हैं कि ‘’जागरूकता के अभाव में देवार सरकारी सुविधाओं के लाभ से हमेशा वंचित रहते हैं। जनप्रतिनीधि भी इनसे मुलाकात नहीं करते।‘’ लीला बाई बताती हैं कि ‘’अभी हम लोगों ने एक मोर्चा बनाकर नगरपालिका के दफ्तर की ओर कूच किया तब नगर पालिका अध्यक्ष ने हम लोगों को भगा दिया।‘’ वे सरकार पर आरोप लगाती हैं कि ‘’ऐसे दोयम दर्जे का बर्ताव ना केवल तखतपुर में बल्कि पूरे छत्तीसगढ़ में देवारो के साथ हो रहा है।‘’
इस घटना के द्वारा भी इस समुदाय के प्रति सरकार की बेरूखी को समझा जा सकता है। हाल ही में छत्तीसगढ़ की लता मंगेशकर के नाम से प्रसिद्ध किस्मत बाई देवार ने उचित इलाज के अभाव में दम तोड़ दिया। अस्सी के दशक में आकाशवाणी और दूरदर्शन के जरिए अपनी गीतों से पहचान बनाने वाली किस्मत बाई के परिजनों के पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे। परिजनों का आरोप है कि ‘’लकवाग्रस्त किस्मतबाई को सरकार द्वारा उचित इलाज मुहैय्या करवाई जाती तो उन्हें कम से कम ऐसी मौत नहीं मिलती।‘’
हालांकि  किस्मत बाई की मौत के बाद छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का बयान आया कि ‘’स्वर्गीय श्रीमती किस्मत बाई ने अपनी सुदीर्घ कला साधना के जरिए छत्तीसगढ़ के लोक जीवन की संवेदनाओं को अपनी आवाज़ दी।‘’
हीना देवार बूढ़ी दादी की ओर इशारा करते हुए कहती हैं कि ‘’इन्हें स्वास्थ्यगत समस्या तो है ही लेकिन इनकी वृद्धा पेंशन की राशि भी इन तक नहीं पहुँच पाती।‘’ साथ  ही आठ साल के दिव्यांग बलराम के बारे में बताते हुए कहती हैं कि ‘’हमें इसके भविष्य की फिक्र है,हम तो अक्षम है ही, सरकार की भी कोई  सुविधा इसे अब तक नहीं मिली है, ना जाने आगे क्या होगा?’’
देवारों पर काम करने वाली लीलाबाई बताती हैं कि ‘’यहाँ के अधिकतर  बच्चे कुपोषण के शिकार हैं,आंगनबाड़ी भी दूर है इनके माँ-बाप कूड़ा करकट इकट्ठा करने और कबाड़ी का काम करते हैं जिसकी वजह से वे सुबह से शाम तक बाहर ही रहते हैं और बच्चे भगवान भरोसे बड़े होते हैं।‘’
इनकी बदहाल स्थिति के सवाल पर बिलासपुर के सांसद लखन लाल साहू कहते हैं कि ‘’मैं इन लोगों से मिलने के लिए बिल्कुल तैयार हूँ, इस घूमंतू जाति को लेकर एक बड़े प्रोजेक्ट की आवश्यकता है।‘’
लेकिन सवाल ये है कि आखिर क्यों सरकार और जनप्रतिनीधियों ने अब तक कोई पहल नहीं किया?
काँग्रेस की राज्यसभा सांसद छाया वर्मा कहती हैं कि ‘’पृथक छत्तीसगढ़ बनने के बाद अधिकतम समय तक भाजपा का शासन रहा है,जिन्होंने इनकी कोई सुध नहीं ली। अब मैं  देवार जाति की स्थिति से राष्ट्रपति को अवगत कराऊँगी।‘’
पत्रकार शालिनी अवस्थी कहती हैं कि ‘’देवार जाति में शिक्षा और जागरूकता का व्यापक अभाव है जिसकी वजह से वे अपना स्थान सुनिश्चत नहीं कर पा रहे हैं। सरकार को चाहिए की जल्द से जल्द इनके लिए विशेष योजनाएँ चलाए।‘’
लीलावती भी काफी उदास होकर कहती हैं कि ‘’अगर इनकी सुध नहीं ली गई तो इस बार मैं वोट के बहिष्कार के लिए इन सबको संगठित करूंगी।‘’
सही मायनो में लीलाबाई और देवारों की ये उदासी हमारे भारतीय लोकतंत्र के लिए एक चिंता की लकीर है जिसे जल्द ही मिटाने की आवश्यकता है।

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