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मुझे हाल ही में घटित एक और क्रांतिकारी घटना याद आ रही है, तो;…….., क्यों न आपको भी इस घटना से वाकिफ करा दूंं, ……,बच्चों को दवाई पिलानी हो या खिलानी हो तो.., अक्सर स्वास्थ्य विभाग के अधिकारी उच्च शिक्षा अधिकारियों के साथ लफ़्ज़ों के दो पैग मार कर अपनी टेंशन मास्टरों के मत्थे जड़ देते हैं। क्योंकि शिक्षक ही वो जीव है जो बच्चों को अच्छे से हैंडल कर सकता है।
जिन बच्चों को उनके मां-बाप दवा नहीं खिला सकते उन्हें दवा खिलाने की ज़िम्मेदारी शिक्षक को मिल जाती है। ऐसे ही एक दिन मैं बच्चों को एल्बेण्डाज़ोल (पेट के कीड़े मारने की दवाई) खिला रहा था तो कई बच्चों नें स्पष्ट मना कर दिया कि हम दवाई नहीं खायेंगे।
मैंने पूछा, “भई क्यों नहीं खाओगे?” तो एक चतुर, अत्यंत ज्ञानी एवं छात्र-शिरोमणि किशोर लड़के नें स्पष्ट किया कि उन्हें शक है कि इस दवा के खाने से उनके बच्चे पैदा करने की ताक़त नष्ट हो जाएगी अथवा असर पड़ेगा।
यह सुनते ही मुझे तगड़ा झटका लगा। कानों से धुआंं निकलने लगा, रोंगटे क्या बाल भी खड़े हो गए। जिस उम्र में हम साला आंंख मारने से डरते थे। उस उम्र में हमारे शागिर्द प्यार, इश्क़ और मुहब्बत में पीएचडी किए बैठे हैं। हुस्न और शवाब की अद्भुत पारखी नज़र लिए बैठे हैं। मैंने ख़ुद को संभालते हुए पूछा, “भई, इस ज्ञान की प्राप्ति कहांं से हुई तुम्हें?”
“जी, हमनें सुना है”, लड़के नें जवाब दिया। उसका शक दूर करने के लिए मुझ नवविवाहित, जवां शिक्षक को पूरी कक्षा के सामने एक गोली ख़ुद खानी पड़ी। तब जाकर तो उसने और उसके अनुयायियों नें दवा खाई। ख़ैर उनके पेट के कीड़े मरे हो या न मरे हों पर लगता है मेरे पेट के ज़रूर मर गए होंगे।
नोट : यह लेखक के निजी विचार हैं, इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं। संस्थान का इससे कोई लेना-देना नहीं है।
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