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पतझङ था झाड़ खड़े थे सूखे से फुलवारी में ,
किसलय दल कुसुम बिछा कर आये तुम इस क्यारी में |
जयशंकर प्रसाद की ये पंक्तियाँ बसंत ऋतु का स्वागत करती सी दिखती हैं |
ऋतुराज सौंदर्य बोध का स्थायी भाव |ऋतुराज मन का मीत |मंथन का सखा|
विश्व की सभी सभ्यताओं में गूंजता हुआ प्रेम और आनद का मौसम |
बसंत का जिक्र आये और फूलों की बात न हो ऐसा नहीं हो सकता |
बसंत शब्द के पास से गुजरने भर से ख्यालों में जग पड़ता है रंगों और सुगंधों
का मौसम |सिर्फ मौसम का बदलाव नहीं है बसंत |खुशियों का राग है बसंत |
हवाएं बहारें फूल और खुशबू|रंग उमंग संगीत ,सच जादूगर है ये मौसम |
मन को अजीब सा सकून देता है ये खुशगवार मौसम |इस मौसम का जादू
सर चढ़कर बोलता है |पतझड़ के पास आते नए से पत्ते ,रंग बिरंगे फूलों से
भरी बगिया मानों स्वयं का श्रृंगार कर इठला उठती है |
फूलों के बिना तो बसंत का वर्णन ही अधूरा है |फूलों की जुबान नहीं होती ,
लेकिन जब ठहर जाते हैं जुबान पर आये शब्द तो हाथों में थमी एक नन्ही सी कली
,एक गुलाब ,फूलों का एक गुच्छा बयां कर देता है कहा अनकहा सब |सचमुच दर्द
को बाटना हो ,खुशियां साझा करनी हो ,दोस्ती का हाथ बढ़ाना हो या पहुचनी हो
अपनी बात किसी खास तक ,फूल एक वफादार साथी की तरह मौजूद होते हैं हर बार |
रिसर्च बताती है कि ज्यादातर लोग कभी नहीं भूलते कि आखिरी बार फूल उन्हें कब
तोहफे में मिले थे वही नब्बे प्रतिशत लोग उन्हें सहेज कर रखते है किताबों में ,दिल में |
डाली डाली से फूल चुनकर बंधे जाते हैं जब जज्बातों की डोरी से तब ही तो तैयार होता है
बुके |दुनियां के तमाम तोहफों में सबसे सुन्दर सबसे बेशकीमती तोहफा जो अपनी
भीनी भीनी खुशबू छोड़ जाता है हमेशा के लिए |
बसंत ऋतु मुझे हमेशा ही आह्लादित करती है |बचपन में आम के पत्तों के बीच छिपी
कोयल की कुहू कुहू को दोहराना व् वापस कोयल का और उच्च स्वर में कहकहाना ,
स्कूल की क्यारियों मे खिले रंग बिरंगे गुलाबों की खुशबुओं से आजतक सुवासित है ये मन प्राण |
आज भी ये मौसम आन्दित करता है मुझे|लगता है की फिर कोयल की तरह बिना किसी की
परवाह किये जो दिल में आये गाऊं,लगता है फूलों की तरह बिना किसी भेदभाव के हर शय
को महक जाऊ , लगता है ठंडी अलमस्त हवाओं की ठंडक को अपने अंदर संजो लू लगता है पेड़ों
की नयी मुलायम पत्तियों की तरह मेरा ये मन फिर से बच्चा बन जाऊं|
अनगिनत इच्छाएं हैं |बसंत है ही मन की जीवन की प्रकृति की असीम कामनाओं का वाहक |
बसंती परंपराएं माँ शारदे का भी आह्वाहन कर रही हैं |मैं भी खुली आँखों से बचपन में जा
छोटी छोटी हथेलियों में पिली लाल पंखुड़ियां समेटे बच्चों के साथ पीली फ्रॉक पहने मैं भी
माँ पर पुष्प अर्पित कर निराला जी की ये पंक्तियाँ गनगुना उठती हूँ |
कलुष भेद ताम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे
वर दे वीणा वादिनी वर दे |
पर कुछ है जो मन को कचोटता है प्रगति की दौड़ में मानव ने कितना कुछ पीछे छोड़ा
उसे खुद याद नहीं |शांति खोकर तनाव बटोरता हुआ, सदगीफेंककर क्रतिमताएं सहेजता हुआ ,
अनदेखी दुनिया की और भागता इंसान बेतरह हांफ रहा है |पर क्या प्रकृति में सुकून ढुढता
है वो अब |कितने ही फूल और बृक्ष ऐसे हैं जो अब नहीं रहे क्यों न साथ छोड़ती खुशबुओं
को हम थम लें कल के बसंत के लिए और निराला जी की ये पैनकटियां साकार हो |
आया बसंत श्रृंगार की बजने लगी रागिनियाँ ,
और लो शलभ चित्र सी
पंख खोल उड़ने को अब कुसुमित घाटियां .
लो ऋतुराज आ गया …..
.सभी को बसंत पंचमी की अग्रिम हार्दिक शुभकामनायें
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