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क्यों तू खोता है अपने को
इच्छाओं की मृग तृष्णा में?
अंत हीन हैं ये!
न कर पायेगा शमन इनका तू,
पड़ जायेंगी बेड़ियाँ मेरी ही तेरे पाँव में,
कैसे खोल पायेगा फिर तू उन्हें !
ह्रदय तंत्री के झंकृत हुए तार सभी-
संघर्ष रत जग को नहीं जाना क्या तूने?
तो समझ चंचल मन!
मैं….. तो रहता सदा साथ उसके………,
होता है यहाँ हर कोई उसका ही दास,
फटकने भी न देना चाहता कोई मुझे अपने पास ,
पर क्यों भूल जाता यह तू,
मुझसे ही तो होता है उसका अहसास |
हँसना-रोना जीना-मरना,
यही तो है जग में करना,
मुश्किलों के अंगारों पर चलना तुझे|
स्वार्थ छोड़ किंचित परार्थ में रत,
पर-हित में हो जा तू लिप्त|
फलेच्छा त्याग कर्मासक्त हो औ
विश्व बंधुत्व का अलख जगा ,
हो जाए सभी का संगम सर्वत्र |
स्वतः ही खुल जायेंगी पड़ी पैरों में बेड़ियाँ
न भड़केगी मेरी ज्वाला तुझमें
चला जाएगा तू भी शरण में उसकी
और हो जाएगा उसका मृदु अहसास भी
उसका मृदु अहसास भी………!!
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