sahity kriti
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लिए अरमानों की झोली पसारे
चल पड़े तुम मंजिल अपनी तलाशने !
दुर्गम हैं राहें औ कंटीला पथ
दूर से जो छलांग लगाई
शून्य ही शून्य था वहां पर !
यथार्थ जो देखा पास से ,
मंजिल पकड़ी ही थी
सिरा छूटा हाथ से ,
ज्यों ऊषा काल में कदली के पत्तों से
ओस की बूँदें सरकती |
आंधी तूफानों ने रोड़े अटकाए
नाउम्मीदों के साये ने
हृदय को झकझोरा |
कोशिशें तो अभी भी बाकी हैं
जाना है सुदूर …..जाना है
वहीँ कहीं मिलेगा तुम्हें किनारा
वक्त के पिंजरे में शायद कहीं
कैद हो गयी है मंजिल !
कैद हो गयी मंजिल !!!!!!!!!
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