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भावनाओं के भव सागर में सभी कुछ कहीं खो सा गया है,
समय……वर्ष,संवत्सर ,युग बदलते दृष्टिगत हो रहे,
सभ्यता दर सभ्यता हम आगे बढ़ते जा रहे.. बढ़ते जा रहे
आदमी है कि आदमी भी अपने में खोते जा रहे खोते जा रहे |
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‘स्व’ का आधिपत्य हो उर पर सुसंस्कृत का लबादा चढाते,
एक दूसरे से अलग हो संस्कृति को इक अलग रूप में देखते|
आदमी यहाँ आदमियत को छोड़ मानुषिकता के अरण्य में
अत्याचार की कुल्हाड़ी ले इंसानियत के पेड़ों की जड़ें काटते |
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धरा पर झूठ, स्वार्थ औ ईर्ष्या का बिछौना बिछा कर,
गूंगे ,बहरे , पंगु व निष्प्राण-से ओढ़े अहम् की चादर|
मानवता के विलुप्ति-सागर में स्थान नहीं सौहार्द को ,
दुर्बुद्धि के आँगन में भागता देखता केवल अपने को |
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ज़िन्दगी की सडकों पर बेनकाब किया अपने को,
नश्तर चुभाता भयानक सा लगता यहाँ सभी को |
प्रस्तर में न होते प्राण पर मानव में तो होते प्राण,
फिर भी आदमी हो जाता जैसे हो कोई पाषाण !
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