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यूँ ही बैठी हुई , अपने ही ख्यालों में खोई हुई ,
कुछ अनमनी किंचित अन्यमनस्क सी ………..
कि अचानक आकर किसी ने झिंझोड़ा—
हुए झंकृत तार मन के !
आवाज़ आई – क्या नहीं पहचाना मुझे ?
उत्तर दिया – नहीं जान पाई तुझे , है कौन तू ?
दे परिचय मुझे अपना सारा |
वह बोली – सुन , भूल गयी तू इतनी जल्दी मुझे !
अभी पिछले साल ही तो मिली थी तुझसे !
तेरी आकांक्षाओं की बलि चढ़ रही थी ,
धूनी रमाए तू बैठी हुई थी |
तेरी ‘ तनया ‘ की अर्थी उठ रही थी ,
अपंगता का अहसास कर रही थी ,
गेह कोने में पड़ी सुबक रही थी !
आगे पीछे सर्वतः मैंने दस्तक दी……..,
पर तू तो इन सबसे बेखबर थी !
सुना ‘ उसको ‘ औ ख़त्म हुई वार्ता सारी |
एक कसक थी , दहशत थी दिल में कि बिजली सी कौंधी—-
फिर आ गयी ये निगोड़ी न जाने कहाँ से !
डर था मुझे कहीं पकड़ न ले ,
जुटा साहस लगाई गुहार मैंने–
चीखी……चिल्लाई……
चल हट, दूर हो जा यहाँ से ,
आज फिर क्यों आई मुझे भस्म करने ?
तू कौन है ? जान गयी अब मैं |
तू है महँगाई ! महँगाई !! महँगाई !!!
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