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बिहार की राजनीति में बाहुबली : ” कौन कहाँ ? “

Manthan
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बिहार की राजनीति में बाहुबली : ” कौन कहाँ ? “

अब कहने को तो बिहार में ज्यादातर नेता अपने – अपने इलाके में बाहुबली ही कहे जाते हैं। लेकिन उन बाहुबलियों के बारे में चर्चा करना ज्यादा जरूरी है जिनका नाम और प्रभाव कुछ ज्यादा है। ज्यादा दिन पहले नहीं बीस-पच्चीस साल पीछे चलते हैं।

बिहार में उस वक्त गिने चुने बाहुबली हुआ करते थे। ये वो दौर था जब बिहार की राजनीति में बाहुबलियों का प्रभाव ज्यादा बढ़ा और उनकी महत्वकांक्षाएं राजनेताओं की सियासत को हिलाने लगी थी। उस वक्त आनंद मोहन विधायक हुआ करते थे। पप्पू यादव भी विधायक थे। दोनों का खास इलाके, खास जाति पर अपना प्रभाव था। हालांकि 1995 से पहले ही आनंद मोहन ने जनता दल का साथ छोड़ बिहार पीपुल्स पार्टी नाम का दल बनाया था। इस समय आनंद मोहन की पत्नी लवली आनंद वैशाली से उपचुनाव जीतकर सांसद बनी थीं। ये वो दौर था जब अशोक सम्राट, रामा सिंह, छोटन शुक्ला, देवेंद्र दुबे, सुनील पांडे, सतीश पांडे, अखिलेश सिंह, अवधेश मंडल, अशोक महतो, बृजबिहारी, शहाबुद्दीन अपराध के रास्ते सियासत में घुसने का रास्ता तलाश रहे थे। आनंद मोहन की पार्टी ने इनमें से कई लोगों को अपनी पार्टी के जरिये प्लेटफॉर्म भी मुहैय्या कराने का काम किया। हालांकि चुनाव से पहले छोटन शुक्ला की हत्या हो गई। अशोक सम्राट भी मारे गए और भी कुछ नाम थे जो अभी याद नहीं आ रहे । लेकिन जो बचे उन्होंने वर्तमान हालात को देखते हुए सियासत में सीधे घुसना ही बेहतर समझा। देवेंद्र दुबे और सुनील पांडे ने नीतिश जी का साथ दिया..तो शुक्ला परिवार उस समय आनंद मोहन के करीब चला गया। ब़ृजबिहारी लालू के साथ थे। बाद में मंत्री रहते हुए हत्या हो गई। कुछ लोग निर्दलीय किस्मत आजमाने के लिए मैदान में उतरे। शहाबुद्दीन इसी दौर की उपज हैं । 95 में शहाबुद्दीन जीरादेई से पहली बार निर्दलीय जीतकर आए थे। बाद में उन्होंने लालू का साथ दिया और फिर कहां तक गए देश देख चुका है। ये हम उस दौर की चर्चा कर रहे हैं जब बिहार की सियासत में अपरा धीकरण की शुरुआत हुई थी।

1995 से लेकर साल 2000 तक बिहार की सियासत में कई उलटफेर हुए। कई बाहुबली ‘शहीद’ हो गए तो कई लोगों ने सत्ता के साथ अपनी सियासी जमीन मजबूत बना ली। इस दौर में प्रभुनाथ सिंह, साधु यादव, तस्लीमुद्दीन, बूटन सिंह, प्रदीप महतो जैसे लोग भी परिस्थितियों के साथ ज्यादा मजबूत होते चले गए। जहां तक जनमत का मामला था तो इन बाहुबलिय़ों में ज्यादातर का अपने इलाके से बाहर प्रभाव उतना ज्यादा नहीं था। आनंद मोहन जरूर उस दौर में राजपूतों के सबसे बड़े नेता बनकर बिहार में उभर चुके थे। चूंकी लालू खुद यादवों का नेतृत्व कर रहे थे लिहाजा पप्पू यादव को वो कुर्सी नहीं मिली, लेकिन कोसी के इलाके में पप्पू यादव ने अपनी पकड़ मजबूत कर ली। शुक्ला खानदान की सियासत को आगे बढ़ाने का काम किया मुन्ना शुक्ला ने। साल दो हजार आते आते बिहार की राजनीति में नेता कम बाहुबली ज्यादा थे जो सीधे सक्रिय हो गये। इस दौर में सूरजभान, दिलीप सिंह, सुरेन्द्र यादव, राजन तिवारी, सुनील पांडे, कौशल यादव, बबलू देव, धूमल सिंह, अखिलेश सिंह, दिलीप यादव सरीखे नेता सीधे – सीधे खुद के लिए जनता से वोट मांगने जा पहुंचने वालों में शामिल हो गये। ज्यादातर लोग इनमें से जीतकर विधानसभा पहुंचे और बिहार विधानसभा की तस्वीर ही बदल दी । आपको अगर याद न हो तो बता दूं.. कि जब इनमें से ज्यादातर लोग निर्दलीय जीतकर आए तो सात दिन की सरकार में इन बाहुबलियों ने नीतिश कुमार जी का साथ दिया था। बाद में कई लोग जहाँ-तहाँ अपनी सेटिंग करने में कामयाब हो गए।

अब अगर वर्तमान सूरत में इन बाहुबलियों की जगह के बारे में बता दूं तो… खुद आनंद मोहन जेल में हैं, और उनकी पत्नी कांग्रेस में। आश्चर्य न हो अगर कुछ दिनों बाद आनंद मोहन पत्नी के साथ फिर से जे.डी. (यू) में लौट आएं। पप्पू यादव तो चुनाव नहीं लड़ सकते, लेकिन कागजी तौर पर पत्नी के साथ कांग्रेस में हैं। अभी कोई भी सांसद या विधायक नहीं हैं। सूरजभान लोजपा में हैं। लेकिन वो भी सांसद या विधायक नहीं हैं।इनकी राजनैतिक सक्रियता व्यावसायिक सक्रियता की तुलना में कमतर है l राजन तिवारी भी हारे हुए हैं और जेल में हैं। प्रभुनाथ सिंह आर.जे.डी. में गये हैं, हारे हुए हैं, न विधायक और ना ही सांसद हैं लेकिन सारण में अच्छा खासा प्रभाव है। तस्लीमुद्दीन अभी आर.जे.डी. में हैं, कोसी (सीमांचल) के इलाके में इनकाअच्छा दबदबा है। साधु यादव कांग्रेस में हैं, हारे हुए हैं न सांसद हैं और ना विधायक, इनका कहाँ प्रभाव है नहीं मालूम ! शहाबुद्दीन भी जेल में हैं। सजा पा चुके हैं लिहाजा चुनाव नहीं लड़ पाएंगे, पत्नी को जरूर विधानसभा लड़ा सकते हैं। वैसे वो लोकसभा का चुनाव लड़कर हार चुकी हैं। इनका सीवान में प्रभाव भी दिनो-बदिन घटता जा रहा है। इनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता की बात की जाए तो सत्ताधारी दल के साथ इनका कोई ना कोई गँठजोड़ जरूर है क्योंकि इनका पुरा राजनीतिक कुनबा , जिस में इनके नजदीकी रिश्तेदार एजाजुल हक भी शामिल हैं , आज जे.डी. (यू) के साथ है l मुन्ना शुक्ला की पत्नी श्रीमति अन्नु शुक्ला विधायक हैं और जे.डी.(यू) में हैं l मुजफ्फरपुर और वैशाली में इनका दबदबा है। अनंत सिंह, सुनील पांडे, धूमल सिंह भी जे.डी.(यू) में हैं और विधायक हैं। ये वो बाहुबली हैं जो अपने क्षेत्र के साथ ही आसपास के क्षेत्रों को प्रभावित कर सकते हैं।

वैसे और बाहुबलियों की बात करे तो बबलू देव अभी आर.जे.डी. में हैं और विधायक हैं। अखिलेश सिंह (नवादा वाले ) अभी जेल में हैं शायद, पत्नी को चुनाव लड़वाया था एक बार विधायक भी बनीं थी लेकिन अभी कुछ नहीं हैं। कौशल यादव नवादा के गोविंदपुर से और उनकी पत्नी पूर्णिमा यादव अभी नवादा से निर्दलीय विधायक हैं दोनों । इन दोनों का गँठजोड़ भी जे.डी. (यू) के ही साथ है l दिलीप यादव अभी आर.जे.डी. से विधायक हैं। दिलीप यादव ने लेसी सिंह को हराया था, लेसी सिंह बूटन सिंह की पत्नी है। बूटन सिंह जो कि बाहुबली माने जाते थे उनकी 2000 के चुनाव से पहले हत्या हो गई थी। प्रदीप यादव की भी हत्या हो चुकी है, उनकी पत्नी अश्वमेघ देवी पहले विधायक बनीं अभी जे.डी. (यू) से सांसद हैं। जहानाबाद में जगदीश शर्मा बड़े नेता हैं और बाहुबली भी, कांग्रेसी में थे पहले अभी जे.डी. (यू) के सांसद हैं l इनके पुत्र राहुल शर्मा भी विधायक हैं घोसी सीट से। जहानाबाद में अच्छा प्रभाव है इस परिवार का । जहानाबाद और सीमावर्ती गया जिले में ही बाहुबल के कारण प्रभाव वाले नेता सुरेंद्र यादव भी हैं जो लोकसभा का चुनाव जहानाबाद से हार गये थे , अभी बेलागंज से विधायक हैं। लेकिन इलाके में प्रभाव है। इसके अलावा भी और अनेकों नाम हैं ।

जैसा की शुरुआत में ही मैं ने बताया हर इलाके में कोई न कोई लोकल बाहुबली है जो एक विधानसभा क्षेत्र की सियासत तो करता ही है। सीतामढ़ी में राजेश चौधरी, अनवारुल हक, श्रीनारायण सिंह , अवनीश कुमार सिंह का प्रभाव है । मोतिहारी में बबलू देव, रमा देवी, सीताराम सिंह, राजन तिवारी, गप्पू राय का प्रभाव तो बेतिया में सत्तन यादव, बीरबल यादव, पूर्णमासी राम का प्रभाव। पूर्णमासी राम अभी गोपालगंज से सांसद हैं, लेकिन बगहा में इनकी राजनीति अच्छी खासी पकड़ वाली है। पूर्व में जे.डी.(यू) से निलंबित भी चल रहे थे । गोपालगंज में सतीश पांडे, जितेन्द्र स्वामी का प्रभाव है। आरा, बक्सर में आइए तो यहां की राजनीति अलग तरीके से होती है। यहां लाल झंडे की सियासत भी है सो समीकरण समय के हिसाब से बनते बिगड़ते हैं। सुनील पांडे और भगवान सिंह सरीखे नेता अभी जे.डी.(यू) के विधायक हैं। बेगूसराय में तो कई सूरमा हैं। बेगूसराय, नवादा और पटना के ग्रामीण इलाकों में तो बिहार के बाहुबलियों का हिसाब किताब चलता है।

पटना जिले में अनंत सिंह ,सूरजभान,ललन सिंह ( सूरजभान खेमा ), नागा सिंह (मोकामा), भोला सिंह (पण्डारक) , सूरज सिंह (रामपुर डुमरा) , रीतलाल यादव (खगौल), रामानन्द यादव (वर्तमान में आर.जे.डी. विधायक ) के गिरोह राजनीति में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सक्रिय रहते हैं l नवादा के एक कोने में बाहुबली अखिलेश सिंह(वारसलीगंज), पँकज सिंह ( स्व. आदित्य सिंह के पुत्र ) , अशोक महतो, कौशल यादव जैसे लोग प्रभावी रूप से सक्रिय हैं। बिहारशरीफ में पप्पू खां। पूर्णिया और कोसी के इलाके में तो पप्पू यादव, तस्लीमु्ददीन, आनंद मोहन के अलावा अब शंकर सिंह, अवधेश मंडल, दिलीप यादव, किशोर कुमार मुन्ना भी प्रभावित करने वाले लोगों में शामिल हो गये हैं।
ये है बिहार की सियासत के अपरा धीकरण की कहानी का कमोबेश पूरा खाका । वैसे और भी कई दबंग लोग हैं जिनका खास – खास इलाके में खासा प्रभाव है। वैसे कुछ लोगों के नाम छूट गये होंगे, ऐसा मुझे लगता है। लेकिन मोटा – मोटी बिहार की सियासत में बाहुबलियों के दबंगई की यही तस्वीर है ।

कुछ लोग जाति के नाम पर नेता बने हुए हैं तो कुछ लोगों की इलाके से बाहर सिर्फ बाहुबली नेता की पहचान है l इसके अलावा ऐसे लोग राजनीति में रत्ती-भर प्रभाव भी नहीं छोड़ सकते। रही बात किस पार्टी में कितने बाहुबली हैं ? तो आप सबों को अब तक वो अंदाज लग गया होगा !!

वैसे उभरते हुए अनेकों और बाहुबली हैं ,जो अपना , अपनी पत्नी या अपने परिजनों के लिए टिकट का जुगाड़ अभी से ही लगा रहे हैं l आज की तारीख में इन सबों की पहली पसंद जनता दल (यूनाइटेड) ही है और सब तीर के भरोसे ही ” राजनीति का शिकार ” करना चाहते हैं l दूसरी पंसद भारतीय जनता पार्टी का कमल है क्योंकि आजकल ” मुन्ना भाई एम.बी.बी.स. स्टॉईल की गाँधीगीरी ” का जमाना है l लालू की लालटेन तीसरी पंसद क्योंकि “ लालटेन का केरोसिन “ मँहगा जो हो गया है और लालटेन की रोशनी भी मद्धिम पड़ी है l काँग्रेस का ” कमजोर हाथ ” कोई मजबूरी में ही थामने को तैयार है और रही बात रामविलास जी के ” बियावान और उजाड़ पड़ चुके बँगले ” की तो कोई उधर झाँकना भी नहीं चाह रहा है ।

ताजा हालात ये है कि पिछले चुनाव में कुछ लोग जो दूसरे दलों के टिकट पर जीत कर आए थे या जिन्होंने चुनाव में अपना हाथ आजमाया था और जिनका रिश्ता किसी न किसी रूप में अपराध जगत से जुड़ा है वो लोग सत्ताधारी दल में आ चुके हैं या आने के लिए प्रयासरत हैं l सच ही कहा गया है कि अपराध का सबसे अच्छा संरक्षण और पोषण सत्ता के संसर्ग में ही होता है l आपराधिक जमीन के विस्तार के लिए राजनीतिक जमीन की तलाश निहायत ही जरूरी है l

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