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बिहार की रैलियों का सच

Manthan
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बिहार की रैलियों का सच :

विगत कुछ दशकों से बिहार में या बिहार से संबंधित राजनैतिक रैलियों के आयोजन का मुख्य उद्देश्य राजनैतिक शक्ति का भोंड़ा और विकृत प्रदर्शन मात्र ही रहा है lअजीब पहलू है ये राजनीतिक व्यवस्था का जिस (जनता) की बदौलत पूरी व्यवस्था है वही मजबूर है मदारी के बन्दर की तरह तमाशे में शरीक होने के लिए l निरन्तर उसे ही छला जा रहा है जो आम जिन्दगी की जद्दोजहद की त्रासदी और राजनीतिक पाखँडों को रोज झेल कर मृत-प्राय हो चुका है
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अजीब विडम्बना , विरोधाभास और त्रासदी है बिहार के जनमानस के साथ l जिस व्यवस्था परिवर्तन की उम्मीद और आस में एक नए विकल्प को चुना गया वो भी पूर्व के शासक की तरह भेंड़चाल की राजनीति में संलिप्त हो गया l ऐसी रैलियों की प्रासंगिकता और सार्थकता पर सदैव प्रश्न-चिह्न रहा है और रहेगा lआम जनजीवन और जनमानस को इन राजनैतिक रैलीयों से ना कभी कुछ हासिल हुआ है और ना होगा l अगर विगत 20-25 वर्षों के इस तरह के आयोजनों का विश्लेषण और विवेचना किया जाए तो एक चीज जो स्पष्ट तौर पर उभर कर आती है कि इन में शरीक होने वाले 75 प्रतिशत लोग कॉमन होते हैं चाहे आयोजन किसी भी राजनैतिक दल का हो l इस प्रकार की रैलीयों में भीड़ जुटाने वाले स्वंयभु ठेकेदार भी कॉमन होते हैं l इस के मूल में अशिक्षा और गरीबी दो सबसे महत्वपूर्ण कारण हैं l चन्द पैसों और अच्छे भोजन के प्रलोभन मात्र से ही मासूम जनता को बरगला कर उनकी भागीरदारी सुनिश्चित की जाती है l सरकारी तंत्र , सरकारी संसाधनों और धन व बाहुबल का कैसा उपयोग होता है इन आयोजनों को सफ़ल बनाने में ये सर्वविदित है l पुरानी कहावत ” जिसकी लाठी उसकी भैंस ” का सच्चे मायनों में चरित्र-चित्रण होता है l एक दिन के तमाशे के पीछे जितना पैसा बेदर्दी से अपनी हेकड़ी साबित करने में बहाया जाता है उतने में शायद एक मध्यम आकार के औद्योगिक इकाई की स्थापना बखूबी हो सकती है l भगवान भी शायद बिहार के राजनीतिज्ञों को सदबुद्धि देने में सकुचाता है l ऐसे आयोजनों से अगर व्यवस्था परिवर्तन होने को होता तो शायद बिहार आज सम्पूर्ण विश्व के शिखर पर होता l

विशेष राज्य की मांग को लेकर सत्ताधारी दल की देश की राजधानी में प्रस्तावित तथाकथित अधिकार रैली भी ऐसी ही रैलियों का हिस्सा है l जब से अपने दूसरे कार्य-काल में नीतिश कुमार जी ने बिहार की सत्ता संभाली है वे बिहार को विशेष राज्य का दर्जा दिलाने का ढोल पीटते चल रहे हैं। लेकिन एक बात जो इस परिपेक्ष्य में स्पष्ट तौर पे ऊभर कर आती है कि इस मुद्दे पर वो तब क्यूँ मौन थे जब वो एन.डी.ए. के शासनकाल में केन्द्र में एक ताकतवर मंत्री के रूप में पदस्थापित थे और बिहार में राबड़ी देवी का शासन था। बिहार में राबड़ी देवी भी तो यही बात कह रही थीं और ये बार – बार इसका विरोध कर रहे थे । यानी ये ( नीतिश कुमार जी ) जो बोलें वो देववाणी और कोई और बोले तो असुरवाणी। अजीब विरोधाभासी माँग है , एक तरफ़ तो ये विकास के ” पेट्रानॉस टावर ” खड़ा करने का दावा करे हैं और दूसरी तरफ़ राजनीतिक स्वार्थों से निहित ये माँग !!

बिहार में परिवर्तन की वास्तविक रैलियों का समृद्ध इतिहास रहा है , चाहे वो स्वतंत्रता संग्राम के दौरान हो या स्व. जयप्रकाश नारायण जी के सम्पूर्ण क्रांति के दरम्यान l उन रैलियों में लोगों की भागीरदारी प्रायोजित नहीं होती थीं, लोग स्वेच्छा से आते थे क्यूँकि उन आयोजनों के मूल में देशहित व जनहित की भावना समाहित होती थी l क्योंकि वो दौर ” रंगा-सियारों ” का दौर नहीं था l

सच और बेबाकी के साथ कहूँ तो वैसे आयोजन ही आज के वक्त और हालात में जरूरी हैं जिनके माध्यम से जन-चेतना और जागरूकता का संचार हो और विकास की खाल ओढ़े दोहरे चरित्र वाले स्वयंभु विकास पुरूषों की काली करतूतों और स्याह कारनामों का अंत सुनिश्चित हो l

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