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हैदराबाद बम विस्फ़ोट के पश्चात देश की जनता के कुछ ज्वलंत प्रश्न (??)
हैदराबाद बम विस्फ़ोट से निश्चित ही सारा देश प्रभावित हुआ है और इस घटना में निर्दोष नागरिकों के मारे जाने से देश की सुरक्षा व्यवस्था पर फ़िर से एक प्रश्न चिन्ह खड़ा हुआ है । भारत में काफी दिनों से बड़े – बड़े शहरों में बम विस्फ़ोट आतंकियों द्वारा किये जा रहे थे । दिल्ली , हैदराबाद , बंगलौर, आदि बड़े शहर आतंकी के निशाने पर थे । लेकिन अनेकों बम विस्फ़ोटों के बाद भी जब इस सरकार के द्वारा अपने नकारे गृहमंत्री को नहीं बदलना आखिर क्या सिद्ध करता है ? क्या यह जनता के हित में लिया गया निर्णय है या आगामी चुनाव में जनता के बीच एक संदेश देने की कोशिश ? यह तो दूसरी राजनीतिक पार्टियां और राजनीतिक समझ रखने वाली जनता भी बखूबी समझ रही है !! लेकिन जहां तक देश की सुरक्षा व्यवस्था की बात है तो निश्चित ही इसके लिए सरकार को नए ढंग से सोचने की जरूरत है । समस्त देश में आतंकवाद की मनमानी आखिर यह गाँधी ( तथाकथित गाँधी परिवार नहीं ) के भारत में क्या हो रहा है ? कहीं ये तुष्टिकरण की घिनौनी राजनीति का हिस्सा या परिणाम तो नहीं है ?
इस में कोई संदेह नहीं कि केन्द्र की यू.पी.ए. सरकार ने आंतकवाद व सीमापार घुसपैठ पर अपने पूरे कार्यकाल में कभी गंभीरता नहीं दिखाई, जिसके कारण आंतकवादियों की गतिविधियां बढ़ीं हैं । राष्ट्र सुरक्षा के प्रति केन्द्र की यू.पी.ए. सरकार का रवैया सदैव ढुलमुल रहा है l आतंकवाद निश्चित रूप से मानवता का और देश का दुश्मन है लेकिन इसके उन्मूलन या नियंत्रण के लिए एक दृढ़ राजनीतिक इच्छा-शक्ति की आवश्यकता है l जिसका कोई नामोनिशान नहीं दिखता है वर्तमान केन्द्र सरकार की नीतियों और कार्य-शैली में l आतंकवाद के खिलाफ़ सख्ती बरतने के रास्ते में कहीं कोई निहित राजनीतिक स्वार्थ तो आड़े नहीं आ रहा है ? देश की आतंरिक सुरक्षा की शायद कोई अहमियत नहीं है इस सरकार के एजेण्डे में ?
बम धमाकों के तुरंत बाद प्रधानमंत्री , केन्द्रीय गृहमंत्री और आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री ने संवेदनाएँ तो व्यक्त कर दीं , मुआवज़े का ऐलान तो कर दिया लेकिन किसी ने भी आंतरिक सुरक्षा की खामियों की ना तो बात की ना ही किसी ने सुरक्षा-तंत्र की नाकामियों को स्वीकार किया। आखिर क्यूँ ? क्या इनकी कोई जवाबदेही नहीं बनती ?
इस प्रकार के हमलों से निपटने के लिए देश कितना सक्षम है ? यह आज भी एक बहुत बड़ा सवाल है। गौरतलब है कि ख़ुफ़िया एजेंसियों ने पहले ही आतंकी हमलों की जानकारी दी थी लेकिन इसे गंभीरता से नहीं लिया गया। सरकार ने यह कह कर पल्ला झाड़ लिया कि धमाके कब और कहां होंगे इसकी जानकारी नहीं दी गई थी। अब सवाल यह उठता है कि क्या आतंकी हमलों की निंदा करने मात्र से क्या सरकार की जिम्मेदारी खत्म हो जाती है ? या फिर, सही जानकारी न मिलने पर हमले रोकने की असमर्थता जताना ही सबसे बेहतर विकल्प है। यदि इस प्रकार की किसी अप्रिय घटना की सटीक जानकारी आम जनता को पहले से दे दी जाए तो वह अपना बचाव स्वयं ही कर सकती है, ऐसे में उन्हें सुरक्षा बलों की आवश्यकता ही क्या है ?
क्या आज आवश्यकता नहीं है आतंकवाद के खिलाफ देश के सभी धर्म के लोगों की एकजुट होकर लड़ने की ? क्योंकि आतंकियों का कोई धर्म नहीं होता और यह मज़हब देखकर जान नहीं लेता l क्या आज वक्त का तकाजा नहीं है कि राजनीतिक स्वार्थ को भूलकर और वोट बैंक की चिन्ता छोड़कर एक दृढ़ इच्छा-शक्ति के साथ आतंकवाद का सामना किया जाए ?
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