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झूठा सुशासनी बिगुल ( एक विस्तृत रिपोर्ट ) :
बिहार में एक ओर जहां सुशासनी सरकार विकास का बिगुल फ़ूँक रही है वहीं दूसरी ओर विशेष राज्य का दर्जा मांग करके लोगों को गुमराह कर रही है। असमंजस की और विरोधाभासी स्थिति है जब विशेष राज्य का दर्जा मिले बिना ही विकास की धारा बह रही है तो विशेष दर्जा क्यों मांगा जा रहा है ?
विकास के जादुई आँकड़ों की प्रस्तुति के बावजूद इसमें कोई शक नहीं कि बिहार आज भी अन्य प्रदेशों की तुलना में काफी पिछड़ा है। विकास के मानकों का सबसे अहम पहलू है आम जनता के जीवन-स्तर की गुणवत्ता l इस में आज भी बिहार देश के बाकी प्रदेशों से काफ़ी पीछे है l विकास के दावों के बावजूद बिहार में आज भी 80 प्रतिशत से अधिक लोग इंधन के लिए लकड़ी, किरासन तेल व कोयला पर आश्रित हैं l
विकास का दूसरा सबसे अहम पहलू है उद्यम / रोजगार का सृजन l खोखले दावों वाली सुशासनी सरकार में युवा पीढ़ी के लोग रोजगार के लिए भटक रहे है और पलायन कर रहे हैं । प्रदेश भर में लगातार हो रहे उग्र – प्रदर्शन और आन्दोलन इस के सूचक है l लगभग आठ सालों के इस सरकार के कार्य-काल में एक भी विस्तृत , वृहत और रोजगारोन्मुखी औद्योगिक इकाई की स्थापना नहीं हुई है l जीविका के एकमात्र स्रोत कृषि की बदहाली सर्वविदित है l बिहार के गाँवों में ग्रामीणों की समस्याओं के समाधान एवं विकास के लिए चलाई गई योजनाओं / कार्यक्रमों का सार्थक स्वरूप कहीं भी ऊभर कर नहीं आ सका है l
इस सरकार के शासन काल में जुबान ही बोल रही है काम नहीं l बिहार पर पैनी निगाह रखने वाले अर्थशास्त्रियों की अगर मानें तो बिहार का हालिया पेश बजट भी झूठ का पुलिन्दा है l बिहार की कुल आमदनी 18 हजार करोड़ है जबकि बजट में इसे 93 हजार करोड़ दिखाया गया है। बजट का सबसे अधिक पैसा शराब के व्यवसाय से है। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि अगर इकोनोमिक सर्वे के अनुसार बजट की तुलना की जाए तो दूध का दूध पानी का पानी हो जाएगा। विकास के नाम पर एक भ्रम की स्थिति बनी हुई है। क्योंकि वास्तविकता ये है कि जी.डी.पी. तो शराब की बिक्री से बढ़ी है l क्या ये विकास के नाम पर विनाश नहीं है ?
सुशासन के तमाम दावों के बावजूद प्रदेश में सरकारी कार्यालायों में हर स्तर पर व्याप्त भ्रष्टाचार जगजाहिर है l इस भ्रष्टाचार से संक्रमित सुशासनी व्यवस्था को साबित करने के लिए दो ही उदाहरण पर्याप्त हैं ” राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत राशि प्राप्त करने लिए महिलाओं का गर्भाशय निकाला जाना और मनरेगा में छह हजार करोड़ रुपये का घोटाला ” l
पिछ्ले आठ वर्षों में ग्रामीण इलाकों में पदस्थापित सरकारी पदाधिकारियों , स्थानीय जन-प्रतिनिधियों एवं पंचायत प्रतिनिधियों ने मनमानी, अनियमितता, भ्रष्टाचार की सभी हदें पार करते हुए ग्रामीण विकास योजनाओं की राशि का बंदर-बांट जमकर किया। सारे काम फ़ाईलों में ही सिमट कर रह गये । ग्रामीण विकास से संबंधित योजनाएं धरातल पर नहीं आ सकीं जिससे गाँवों की बदहाली दूर नहीं हुई। जन-प्रतिनिधियों ने ग्रामीणों एवं गाँवों को जहाँ तक हो सका छला एवं लूटा।
सुशासन की सरकार में पंचायतों में नई आरक्षण प्रणाली को लागू किया गया, जिसमें प्रत्येक पांच वर्ष पर आरक्षित सीटों के बदलते रहने का प्रावधान है। नतीजे में जन-प्रतिनिधियों को यह डर सताने लगा कि पता नहीं अगली बार यह सीट किस आरक्षण व्यवस्था के तहत रहेगी ? फिर दोबारा चुनाव लड़ने का मौका मिलेगा या नहीं ? इसलिए इस बार जो मौका मिला है, उसका पूरा फायदा उठाते हुए किसी भी तरीके से ज्यादा से ज्यादा कमा लिया जाए।
बिहार के पिछले आठ वर्षों के शासन – काल के विश्लेषण के बाद पाँच प्रमुख बातें जो स्पष्ट तौर पे ऊभर कर सामने आती हैं कि राज्य के बजट का बड़ा हिस्सा खर्च नहीं हो पाता , अधिकांश केंद्रीय योजनाओं की बड़ी राशि के लिए राज्य की ओर से प्रस्ताव तक नहीं भेजे जाते, राशि मंगाने की चिंता नहीं होती, और अगर आ गयी तो खर्च नहीं किया जाता , खर्च किया जाता तो हिसाब नहीं दिया जाता है l मनरेगा की राशि के उपयोग में बिहार का स्थान पूरे देश में सबसे निचली सीढ़ी पर है। पिछले वित्तीय वर्ष में बिहार ने केंद्र से मिली राशि का मात्र 7.38 प्रतिशत खर्च किया । केंद्र ने शहरी विकास के लिए जे.एन.एन.यू.आर.एम. की योजना बनायी है । ये योजना 66000 करोड़ की है । इस योजना के तहत गुजरात ने 5604 करोड़ के 72 प्रोजेक्ट स्वीकृत कराए , महाराष्ट्र ने 1160 करोड़ के 80 प्रोजक्ट स्वीकृत कराए , पश्चिम बंगाल ने 704 करोड़ के 71 प्रोजेक्ट स्वीकृत कराए लेकिन बिहार मात्र 71 करोड़ के आठ प्रोजेक्ट स्वीकृत करा सका , आखिर क्यूँ ?
योजना आयोग के एक सलाहकार से साक्षात्कार के क्रम में ये पता चला कि अगर बिहार सही तरीके से राशि का उपयोग करे तो हर साल केद्र से 12000 करोड़ की राशि मिल सकती है लेकिन मिली हुई राशि का उपयोग नहीं कर पाने के कारण बिहार को राशि से वंचित होना पड़ता है। सलाहकार महोदय का ये भी कहना था कि बिहार को मनरेगा में 1800 करोड़ मिले जबकि सही काम किया होता तो 4500 करोड़ मिल सकते थे। राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन में 1300 करोड़ के बदले बिहार सिर्फ 780 करोड़ रुपये ले सका। योजना आयोग ऐसी विफ़लताओं का कारण बिहार में प्रशासनिक ढांचे के अभाव को मानता है । बिहार के स्थानीय शहरी निकाय, नगर निगम इत्यादि अपने संसाधन जुटाने में किस तरह असफल हैं , इस बात से हरेक जागरूक बिहारी भली- भाँति वाकिफ़ है l सुशासन की सरकार अल्पसंख्यकों के कल्याण की लम्बी-चौड़ी बातें तो करती है लेकिन बिहार में अल्पसंख्यकों के कल्याण के लिए आवंटित केंद्रीय सहायता राशि का मात्र 45 फीसदी उपयोग कर सका है बिहार।
बिहार की वर्तमान सरकार को जनता ने काम करने के लिए अपार बहुमत दिया था, विशेष राज्य की माँग की आड़ में अपने कुशासन की “ विकलांगता ” छुपाने के लिए नहीं।
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