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बिहार में जाति और राजनीति

Manthan
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बिहार में जाति बहुत ही महत्वपूर्ण रही है। यह सच है कि यहां की राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही सीमित रही है। इसके एक नहीं अनेकों उदाहरण हैं। फ़िर चाहे वह पूर्व मुख्यमंत्री श्री लालू यादव जी हों या फ़िर आज के नीतीश कुमार जी ।

आज कल बिहार में एक शब्द की पुनरावृति बार-बार हो रही है ” महादलित ” । वास्तव में ये महा दलित कौन हैं ? मैं यहाँ स्पष्ट करना चाहता हूँ कि ये विशुद्ध राजनीतिक शब्द है “सेक्यूलर (धर्म-निरपेक्षता) की तरह । वास्तव में महादलित शब्द नीतिश कुमार जी की देन है परन्तु खेद इस बात का है की जो कार्य महादलित के नाम पे हो रहा है क्या वो हमारे समाज को विघटन की ओर नहीं ले जा रहा है ? वोट बैंक की राजनीति के लिए अपनाया गया हथकंडा सामाजिक विषमताओं को जन्म दे रहा है और समरसता और सदभाव जैसे शब्दों की खिल्ली भी उड़ा रहा है। ये सच है की बिहार में जातिवाद है और इसके लिए अगर कोई जिम्मेवार है तो सिर्फ़ और सिर्फ़ राजनीतिज्ञ ।

दलित जातियों को दो फ़ाड़ में बांटकर उनकी एकता को विखंडित कर नीतीश कुमार ने अपनी राजनीति को नयी धार दी। बिहार में दलित जाति के तहत कुल 23 उपजातियां हैं। श्री कुमार ने जो महादलित शब्द का आविष्कार किया है, उसमें सभी शामिल हैं। केवल एक “पासवान”को छोड़कर। अब यह तो समाज का हरेक तबका और विशेष कर पासवान समाज का आदमी समझ रहा है कि उसे महादलित में क्यों नहीं शामिल किया गया है।

जो नीतीश कुमार आज “जाति- बंधन तोड़ने वाले ” के रुप में अपनी एक पहचान बनाने को लालायित दिख रहे हैं और श्री नरेन्द्र मोदी की सच बयानी , ” बिहार की राजनीति जाति के इर्द-गिर्द ही सीमित रही है ” , पर उन्हें आड़े हाथों ले रहे हैं, उनके बारे में सबसे बड़ी सच्चाई तो यही है कि वे खुद मंडल कमीशन के “पौरुष” से उत्पन्न हुए हैं। क्या बिहार की जनता इस सच को नहीं जानती कि वर्ष 1994 के पहले वे किसके साथ थे और जिनके साथ थे उनकी राजनीति का मुख्य आधार क्या था ? क्या श्री कुमार इस बात से इन्कार करने का साहस कर सकते हैं कि उन्होंने मंडल कमीशन लागू होने के बाद आरक्षण पिछड़ों के हक की बात कही थी।

मंडल कमीशन की बात यदि पुरानी लगे तो बिहार में सवर्ण आयोग के गठन के उदाहरण को लें। अब क्या श्री कुमार इस बात से भी इन्कार कर सकते हैं कि ऐसा उन्होंने सवर्णों का वोट हासिल करने के लिए इस अजीबोगरीब आयोग का गठन किया। अजीबोगरीब इसलिए कि यह आयोग अपने गठन के इतने सालों के बाद भी आज तक बिहार में न तो गरीब सवर्ण ढुंढ सका है और न ही उसने कोई अंतरिम सिफ़ारिश ही किया है।

राजनेताओं को, चाहे वो सुशासन के एकमात्र पुरोधा नीतिश जी हों, सामाजिक न्याय के स्वयंभू भगवान लालू प्रसाद जी हों या दलितों के सेल्फ़-प्रोक्लेमड 5 स्टॉर जिन्दगी जीने वाले मसीहा रामविलास पासवान जी , ये समझना होगा की दलितों के उत्थान के नाम पर आपके दलित विकास का प्रोपगेण्डा ज्यादा दिन तक नहीं चल सकता । इन्हें समाज की मुख्य-धारा में जोड़ने के लिए वोट बैंक की संकीर्ण राजनैतिक सोच का परित्याग इसका पहला कदम होगा और आधारभूत संरचनाओं का समग्र विकास जमीनी स्तर से करना होगा l बहरहाल, गुजरात के मुख्यमंत्री का बयान वाकई में एक सच है और हमें इस सच को नये सच कि बिहार अब जातिवादी व्यवस्था की सीमा तोड़कर आगे निकल चुका है, में परिवर्तित करने के लिये सामूहिक प्रयास करना चाहिए।

आलोक कुमार , चित्रगुप्त नगर , कंकड़बाग , पटना.

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