Menu
blogid : 12147 postid : 692830

भारत के महानायक – १.. नेता जी( कांटेस्ट )

उलझन ! मेरे दिल की ....
उलझन ! मेरे दिल की ....
  • 93 Posts
  • 283 Comments

आज उनका जन्मदिवस है जिनको हम “नेता जी” बोलते है ,जो वास्तव मे देश के नेताओ मे आग्रिम थे । जिनका जीवन सच्चे देशभक्त कि कहानी था । एक किताब कि तरह था , उनका जन्म 23 जनवरी, सन 1897 ई. में कटक उड़ीसा में और पिता का नाम ‘जानकीनाथ बोस’ और माँ का नाम ‘प्रभावती’ था।जो एक मशहूर वक़ील थे।
* छात्र बृत्ति मे हुये भेद – भाव के कारण बोस ने मिशनरी स्कूल को छोड़ दिया ।
एक समय अरविन्द घोस ने बोस जी से कहा- “हम में से प्रत्येक भारतीय को डायनमो बनना चाहिए, जिससे कि हममें से यदि एक भी खड़ा हो जाए तो हमारे आस-पास हज़ारों व्यक्ति प्रकाशवान हो जाएँ। अरविन्द के शब्द बोस के मस्तिष्क में गूँजते थे।
इनकी शिक्षा कलकत्ता के ‘प्रेज़िडेंसी कॉलेज’और ‘स्कॉटिश चर्च कॉलेज’ से हुई, और उसके बाद ‘भारतीय प्रशासनिक सेवा’ (इण्डियन सिविल सर्विस) की तैयारी के लिए उनके माता-पिता ने बोस को इंग्लैंड के ‘कॅम्ब्रिज विश्वविद्यालय’ भेज दिया। सन 1920 ई. में बोस ने ‘इंडियन सिविल सर्विस’ की परीक्षा उत्तीर्ण की, लेकिन अप्रैल सन 1921 ई. में भारत में बढ़ती और शीघ्र मार्त भूमि कि सेवा के लिए उसे छोड़ कर लौट आए। बोस को अपने बड़े भाई शरतचंद्र बोस (1889-1950 ई.) का भरपूर समर्थन मिला, वर्तमान कोलकाता के एक वक़ील होने के साथ-साथ प्रमुख कांग्रेसी राजनीतिज्ञ भी थे।
वे चाहते तो उच्च अधिकारी के पद पर आसीन हो सकते थे।उनके जीवन मे हजारो मोके थे की वो अपना सुख देखते , परन्तु उनकी देश भक्ति की भावना ने उन्हें कुछ अलग करने के लिए प्रेरित किया।
उनकी युवा अबस्था में कटक मे हैजे का प्रकोप हो गया था। शहर के कुछ कर्मठ एवं सेवाभावी युवकों ने ऐसी विकट स्थिति में एक दल का गठन किया। यह दल शहर की निर्धन बस्तियों में जाकर रोगियों की सेवा करने लगा सुभाषचंद्र बोस इस सेवादल के ऊर्जावान नेता थे।

भारत की सामाजिक दशा पर उनके विचार समकालीन थे जो आज भी मूल्यवान है “हमारी सामाजिक स्थिति बदतर है, जाति-पाँति तो है ही, ग़रीब और अमीर की खाई भी समाज को बाँटे हुए है। निरक्षरता देश के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है। इसके लिए संयुक्त प्रयासों की आवश्यकता है। -सुभाष चंद्र बोस
जब वो चले , पूरे देश को अपने साथ ले चल पड़े। वे गाँधी जी से मिले। उन्होंने सुभाष को देश को समझने और जानने को कहा। सुभाष देश भर में घूमें और देश को जाना |
कांग्रेस के एक अधिवेशन में सुभाष चंद्र बोस ने कहा-
मैं अंग्रेज़ों को देश से निकालना चाहता हूँ। मैं अहिंसा में विश्वास रखता हूँ किन्तु इस रास्ते पर चलकर स्वतंत्रता काफ़ी देर से मिलने की आशा है।

सुभाषचंद्र बोस एक महान नेता थे। नेता अपने सिद्धांतों से कभी समझौता नहीं करते, सो, नेता जी में यह गुण कूट-कूट कर भरा था। दरअसल, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अलग-अलग विचारों के दल थे। ज़ाहिर तौर पर महात्मा गाँधी को उदार विचारों वाले दल का प्रतिनिधि माना जाता था। वहीं नेताजी अपने जोशीले स्वभाव के कारण क्रांतिकारी विचारों वाले दल में थे।

लेकिन वे यह अच्छी तरह जानते थे कि महात्मा गाँधी और उनका मक़सद एक है, यानी देश की आज़ादी। वे यह भी मानते थे कि महात्मा गाँधी ही देश के ‘राष्ट्रपिता’ कहलाने के सचमुच हक़दार हैं।और बो उनका बहुत सम्मान करते रहे । गाँधीजी ने भी उनकी देश की आज़ादी के प्रति लड़ने की भावना देखकर ही उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहा था।
सबसे पहले गाँधी को राष्ट्रपिता कहने वाले नेताजी ही थे।
सुभाषचंद्र बोस एक युवा प्रशिक्षक, पत्रकार व बंगाल कांग्रेस के स्वयंसेवक बने। 1923 ई. में चितरंजन दास द्वारा गठित स्वराज्य पार्टी का सुभाष चन्द्र बोस ने समर्थन किया। 1923 ई. में जब चितरंजन दास ने ‘कलकत्ता नगर निगम’ के मेयर का कार्यभार संभाला तो उन्होंने सुभाष को निगम के ‘मुख्य कार्यपालिका अधिकारी’ पद पर नियुक्त किया। 25 अक्टूबर, 1924 ई. को उन्हें गिरफ़्तार कर बर्मा की ‘माण्डले’ जेल में बंद कर दिया गया।जहा एक समय तिलक को रखा गया था । सन् 1927 ई. में रिहा होने पर बोस कलकत्ता लौट आए, जहाँ चितरंजन दास की मृत्यु की खबर मिली । 1928 ई. में प्रस्तुत ‘नेहरू रिपोर्ट’ के विरोध में उन्होंने एक अलग पार्टी ‘इण्डिपेन्डेन्ट लीग’ की स्थापना की। 1928 ई. में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के ‘कलकत्ता अधिवेशन’ में उन्होंने ‘विषय समिति’ में ‘नेहरू रिपोर्ट’ प्रकाशित प्रादेशिक स्वायत्ता के प्रस्ताव का डटकर विरोध किया। 1931 ई. में हुए ‘गाँधी-इरविन समझौते’ का भी सुभाष ने विरोध किया। सुभाष उग्र विचारों के समर्थक थे। उन्हें ‘ऑल इण्डियन यूनियन कांग्रेस’ एवं ‘यूथ कांग्रेस’ का भी अध्यक्ष बनाया गया था।
बोस बंगाल कांग्रेस के अध्यक्ष चुन लिए गए। सन् 1930 ई. में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुआ, बोस कारावास में थे। रिहा और फिर से गिरफ़्तार होने व अंतत: एक वर्ष की नज़रबंदी के बाद उन्हें यूरोप जाने की आज्ञा दे दी गई। निर्वासन काल में, उन्होंने ‘द इंडियन स्ट्रगल’ पुस्तक लिखी और यूरोपीय नेताओं से भारत पक्ष की पैरवी की। सन् 1936 ई. में यूरोप से लौटने पर उन्हें फिर एक वर्ष के लिए गिरफ़्तार कर लिया गया। सन् 1938 ई. में ‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस’ का अध्यक्ष निर्वाचित होने के बाद उन्होंने ‘राष्ट्रीय योजना आयोग’ का गठन किया, जिसने भारत की औद्योगिक नीति को सूत्रबद्ध किया।
सन् 1939 ई. में बोस के प्रति समर्थन की अभिव्यक्ति एक गाँधीवादी पत्तामिसितारम्मैया को दुबारा हुए चुनाव में हरा देने के रूप में प्रकट हुई। लेकिन गाँधी जी के विरोध प्रकट करने के चलते इन्होने पद त्याग दिया ।
१९४० ‘फ़ारवर्ड ब्लॉक’ की स्थापना की, सन् 1940 ई. में वह पुन: बंदी बना लिए गए। आमरण अनशन के कारण घबराकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें रिहा कर दिया। कड़ी निगरानी के बावज़ूद वह 26 जनवरी सन् 1941 ई. को अपने कलकत्ता के आवास से वेश बदलकर निकल भागे और काबुल व मॉस्को के रास्ते अंतत: अप्रैल में जर्मनी पहुँच गए।
पूर्वी एशिया पहुँचकर सुभाष ने सर्वप्रथम वयोवृद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।
जापान के प्रधानमन्त्री जनरल हिदेकी तोजो ने नेताजी के व्यक्तित्व से प्रभावित होकर उन्हें सहयोग करने का आश्वासन दिया।दुनिया भर के नेता उनके मुरीद हो गए थे | नेताजी ने जापान की संसद (डायट) के सामने भाषण भी दिया।
21 अक्तूबर 1943 के दिन नेताजी ने सिंगापुर में आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द (स्वाधीन भारत की अन्तरिम सरकार) की स्थापना की। वे खुद इस सरकार के राष्ट्रपति, प्रधानमन्त्री और युद्धमन्त्री बने। इस सरकार को कुल नौ देशों ने मान्यता दी। नेताजी आज़ाद हिन्द फौज के प्रधान सेनापति भी बन गये।
आज़ाद हिन्द फौज में जापानी सेना ने अंग्रेजों की फौज से पकड़े हुए भारतीय युद्धबन्दियों को भर्ती किया था। आज़ाद हिन्द फ़ौज में औरतों के लिये झाँसी की रानी रेजिमेंट भी बनायी गयी।
जर्मनी में नेताजी एडम वॉन ट्रौट जू सोल्ज़ द्वारा नवगठित ‘स्पेशल ब्यूरो फ़ॉर इंडिया’ के संरक्षण में आ गए। जनवरी सन् 1942 ई. में उन्होंने और अन्य भारतीयों ने जर्मन प्रायोजित ‘आज़ाद हिंद रेडियो’ अंग्रेज़ी,हिन्दी, बांग्ला, तमिल , तेलुगु, गुजराती और पश्तो में नियमित प्रसारण करना शुरू कर दिया। सफ़र करते हुए, सन् 1943 में टोक्यो पहुँचे। 4 जुलाई को उन्होंने पूर्वी एशिया में चलने वाले भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन का नेतृव्य संभाला । वयोवृद्ध क्रान्तिकारी रासबिहारी बोस से भारतीय स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सँभाला। सिंगापुर के एडवर्ड पार्क में रासबिहारी ने स्वेच्छा से स्वतन्त्रता परिषद का नेतृत्व सुभाष को सौंपा था।
उन्होंने गुप्त रूप से तैयारी शुरू कर दी। 25 जून को सिंगापुर रेडियो से उन्होंने सूचना दी कि आज़ाद हिन्द फ़ौज का निर्माण हो चुका है। अंग्रेज़ों ने उनको बन्दी बनाना चाहा, पर वे चकमा देकरनिकल गए।
21 अक्टूबर को उन्होंने प्रतिज्ञा की-
मैं अपने देश भारत और भारतवासियों को स्वतंत्र कराने की प्रतिज्ञा करता हूँ।
लोगों ने तन, मन और धन से इनका सहयोग किया। उन्होंने एक विशाल सभा में घोषणा की- तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। कतार लग गई।खून बहाने बालो की
दक्षिण-पूर्वी एशिया से जापान द्वारा एकत्रित क़रीब 40,000 भारतीय स्त्री-पुरुषों की प्रशिक्षित सेना का गठन शुरू कर दिया।
नेताजी’ के नाम से विख्यात सुभाष चन्द्र ने सशक्त क्रान्ति द्वारा भारत को स्वतंत्र कराने के उद्देश्य से 21 अक्टूबर, 1943 को ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ की स्थापना की तथा ‘आज़ाद हिन्द फ़ौज’ का गठन किया। इस संगठन के प्रतीक चिह्न पर एक झंडे पर दहाड़ते हुए बाघ का चित्र बना होता था।
क़दम-क़दम बढाए जा, खुशी के गीत गाए जा |
ये जिन्दगी है कौम की तू कौम पे लुटाये जा ||
-इस संगठन का वह गीत था,
जिसे गुनगुना कर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे।जो आज भी भारतीय सेना गीत है ।
और जापानी सैनिकों के साथ उनकी आज़ाद हिंद फ़ौज रंगून (अब यांगून) से होती हुई थल मार्ग से भारत की ओर बढ़ती, 18 मार्च सन् 1944 ई. कीकोहिमा और इम्फ़ाल के भारतीय मैदानी क्षेत्रों में पहुँच गई। जापानी वायुसेना से सहायता न मिलने के कारण एक भीषण लड़ाई में भारतीयों और जापानियों की मिली-जुली सेना हार गई और उसे पीछे हटना पड़ा। लेकिन आज़ाद हिंद फ़ौज कुछ अर्से तक बर्मा (वर्तमान म्यांमार) और बाद में हिंद-चीन में अड्डों वाली मुक्तिवाहिनी सेना के रूप में अपनी पहचान बनाए रखने में सफल रही। इसी सेना ने 1943 से 1945 तक शक्तिशाली अंग्रेज़ों से युद्ध किया था तथा उन्हें भारत को स्वतंत्रता प्रदान कर देने के विषय में सोचने के लिए मजबूर किया था। सन् 1943 से 1945 तक ‘आज़ाद हिन्द सेना’ अंग्रेज़ों से युद्ध करती रही।अपनी फौज को प्रेरित करने के लिये नेताजी ने ” दिल्ली चलो” का नारा दिया। दोनों फौजों ने अंग्रेजों से अंदमान और निकोबार द्वीप जीत लिये। यह द्वीप आर्जी-हुकूमते-आज़ाद-हिन्द के अनुशासन में रहे। नेताजी ने इन द्वीपों को “शहीद ” और “स्वराज ” का नया नाम दिया। दोनों फौजों ने मिलकर इंफाल और कोहिमा पर आक्रमण किया। लेकिन बाद में अंग्रेजों का पलड़ा भारी पड़ा और दोनों फौजों को पीछे हटना पड़ा।

सुभाष भारतीयता की पहचान ही बन गए थे और भारतीय युवक आज भी उनसे प्रेरणा ग्रहण करते हैं। वे भारत की अमूल्य निधि थे। ‘जयहिन्द’ का नारा और अभिवादन उन्हीं की देन है।
उन्होंने कहा था कि- “स्वतंत्रता बलिदान चाहती है। आपने आज़ादी के लिए बहुत त्याग किया है, किन्तु अभी प्राणों की आहुति देना शेष है। आज़ादी को आज अपने शीश फूल चढ़ा देने वाले पागल पुजारियों की आवश्यकता है। ऐसे नौजवानों की आवश्यकता है, जो अपना सिर काट कर स्वाधीनता देवी को भेट चढ़ा सकें। तुम मुझे ख़ून दो, मैं तुम्हें आज़ादी दूँगा। इस वाक्य के जवाब में नौजवानों ने कहा- “हम अपना ख़ून देंगे।” उन्होंने आईएनए को ‘दिल्ली चलो’ का नारा भी दिया।
जिस व्यक्तित्व ने इसे देश हित में सबके सामने रखा वह किस जीवट का व्यक्ति होगा।
आज इतने वर्षों बाद भी जन मानस उनकी राह देखता है।क्युकी उनके अंतिम समय का कुछ प्रमाण नही है ‘ वे रहस्य थे ना, और रहस्य को भी कभी किसी ने जाना है?

ताजी सुभाष चंद्र बोस सर्वकालिक नेता थे जिनकी ज़रूरत कल थी, आज है और आने वाले कल में भी होगी। वह ऐसे वीर सैनिक थे, इतिहास जिनकी गाथा गाता रहेगा। उनके विचार, कर्म और आदर्श अपना कर राष्ट्र वह सब कुछ हासिल कर सकता है जिसका हक़दार है। स्वतंत्रता समर के अमर सेनानी, मां भारती के सच्चे सपूत थे। नेताजी सुभाष चंद्र बोस भारतीय स्वाधीनता संग्राम के उन योद्धाओं में से एक हैं जिनका नाम और जीवन आज भी करोड़ों देशवासियों को मातृभमि के लिए समर्पित होकर कार्य करने की प्रेरणा देता है। उनमें नेतृत्व के चमत्कारिक गुण थे जिनके बल पर उन्होंने आज़ाद हिंद फ़ौज की कमान संभाल कर अंग्रेज़ों को भारत से निकाल बाहर करने के लिए एक मज़बूत सशस्त्र प्रतिरोध खड़ा करने में सफलता हासिल की। नेता जी के जीवन से यह भी सीखने को मिलता है कि हम देश सेवा से ही जन्मदायिनी मिट्टी का कर्ज़ उतार सकते हैं। उन्होंने अपने परिवार के बारे में न सोचकर पूरे देश के बारे में सोचा। नेता जी के जीवन के कई और पहलू हमे एक नई ऊर्जा प्रदान करते हैं। वे एक सफल संगठनकर्ता थे। उनकी वाक्‌-‌ –शैली में जादू था और उन्होंने देश से बाहर रहकर ‘स्वतंत्रता आंदोलन’ चलाया। नेता जी मतभेद होने के बावज़ूद भी अपने साथियो का मान सम्मान रखते थे। नेता जी की व्यापक सोच आज की राजनीति के लिए भी सोचनीय विषय है।
उनके स्तर का नेता लड़कर आजादी मांगने बाला, उस समय भारत मे कोई नही था |और इतिहास मे उनको उतना स्थान नही मिला जिसके वो हकदार थे |

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply