जिनको अपना हमने समझा था वो ही बेगाने निकले
न जानी कभी फितरत उनकी कैसे हम दीवाने निकले
पास न थी जिनके मेरे दर्द की कीमत कोई
ऐसे बेदर्दों को हम क्यूं जख्म दिखाने निकले
चूर हुए अरमां सारे टूट गये सपने आखिर
फिर न टूटेंगे अब, पलकों में ख्वाब छुपाने निकले
छुपकर बैठे थे खंजर लेके चाहा दम मेरा निकले
दरियादिल मेरा देखो उनको ही हम बचाने निकले
तेज था तूफां बहुत मगर बंद करी न खिड़की हमने
तिनका तिनका बिखर गया उनको तब उठाने निकले
सामने कत्ल किया आंख बंद करके भला क्या हासिल
आया जब इलजाम सबूतो को तब छुपाने निकले
आबाद था गुलिस्तां जब जानी न कदर देखो
उजड़े चमन को अब फिर से वो बसाने निकले
मिलीं न माफियां रोती रही कितना आंखें
दूर हो गये जब हमको वो मनाने निकले
आयेंगे कभी दुनिया में मेरी वो रहबर बनकर
उम्मीद में इसी हमको तो कई जमाने निकले
दौर से गुजरी मुफलिसी के ये जिंदगी सारी
कब्र में आये तब घर मे गड़े खजाने निकले
कुछ काम आयी नहीं ताउम्र बन्दगी खुदा की
निकलेगी तड़प इक रोज मगर देखो किस बहाने निकले
__________________अमर लता (लखनऊ – भारत)
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