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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बनाम राष्ट्रभक्ति

Voice of Soul
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अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर वर्तमान में तरह-तरह के बयान सुनने में आ रहे हैं। स्वतंत्रता का नाम लेकर देषद्रोह तक की बातें की जाने लगी हैं। जेएनयू में जिस प्रकार भारत विरोधी नारे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लगाये गये, इस पर बुद्धिजीवी वर्ग को अवष्य ही सोचना होगा। जिस देष में हम निवास करते हैं यदि वह देष ही स्वतंत्र न रहे तो देष में रहने वाले व्यक्तियों की स्वतंत्रता का अर्थ ही क्या रह जाता है? देष विरोधी गतिविधियों में भागीदारी करके किस प्रकार की स्वतंत्रता की मांग की जा रही है और यह किस प्रकार देष और देषवासियों के लिए हितकर है, इसका जवाब इस प्रकार के नारे लगाने वालों के पास नहीं होगा। आज सम्पूर्ण विष्व एक ऐसे छोर तक पहुंच चुका है जहां एक देष दूसरे देष के ऊपर प्रत्यक्ष आक्रमण करने की स्थिति में नहीं है। कारण साफ है यदि युद्ध होता है तो उसके परिणाम दोनों देषों के लिए अति भयानक सिद्ध होंगे। परमाणु सम्पन्न होने के कारण इसकी भयावहता का अंदाजा लगाना भी मुष्किल है। इस बात को प्रत्येक देष के रक्षा अधिकारी भलीभांति जानते हैं। किन्तु वहीं दूसरी ओर कुछ भारत विरोधी शक्तियां भारत से परोक्ष रूप में जंग छेड़े हुए है जिसमें न तो हथियारों की आवष्यकता है और न किसी प्रषिक्षित आतंकवादी की। यहां विचारों को हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जा रहा है। नई युवा पीढ़ी के विचारों को इस प्रकार दूषित कर दिया जाये कि वह स्वार्थ को देषभक्ति का नाम देकर ऐसे-ऐसे तर्क देने लगें जिससे सम्पूर्ण देष की समाजिक व्यवस्था पर आंच आने लगे।
यहां पर शत्रु को दोष देने का कोई औचित्य नहीं है। शत्रु का तो काम ही है शत्रुता निभाना। किसी भी प्रकार से अपने शत्रु राष्ट्र को बड़ी से बड़ी क्षति पहुंचाना। इस समय भारत के सबसे बड़े दो शत्रु मुंह बाये खड़े हैं। जहां एक ओर पाकिस्तान प्रत्यक्ष रूप से अपनी उपस्थिति समय-समय पर आक्रमण करके दर्ज करवाता है, वहीं दूसरी ओर चीन भी पाकिस्तान से कहीं कम नहीं। उसकी उपस्थिति जेएनयू में इस प्रकार के देषविरोधी विचाराधारा को प्रसारित करने में कहीं कम नहीं है। माक्र्सवादी विचारधारा का उद्गम स्थल चीन ही है। भारत में जहां उत्तर की ओर पाकिस्तानी आतंकियों ने भारत की नाक में दम किया हुआ है वहीं दूसरी ओर नक्सलियों और माओवादियों के पीछे चीनी आकाओं का हाथ भारतीय सेनाओं के लिए बहुत बड़ा सिरदर्द है।
अब सवाल यह उठता है कि किस प्रकार इस समस्या से निजात पाई जाये? यदि देखा जाये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता अवष्य ही हमारे संविधान में लिखी है। वही संविधान में मूल अधिकारों के साथ मूल कर्तव्य भी लिखे हैं, उन्हें किसी भी प्रकार से अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। मूल अधिकारों का अस्तित्व तभी तक है जब तक मूल कर्तव्यों का निर्वहन किया जाये।
आज हमारे देष में कितने प्रतिषत लोग ऐसे होंगे जो अधिकारों की मांग करने से पूर्व अपने कर्तव्यों की बात करते होंगे? आज भी हमारे देष में भारत के प्रधानमंत्री को अखबारों, चैनलों और अन्य संचार के साधनों द्वारा लोगों को बताना पड़ रहा है कि अपने आसपास सफाई रखो, खुले में शौच न जाओ, महिलाओं का सम्मान करो, धूम्रपान न करो इत्यादि-इत्यादि। इस प्रकार की अनेकों बातें हैं जिनके बारे में हम सभी को ज्ञान है जो कि हमें नहीं करनी चाहिए लेकिन फिर भी हम सभी वह कार्य करते हैं और यह उम्मीद भी करते हैं कि विदेषों से आने वाले लोग हमारा सम्मान करें और विष्वगुरू का दर्जा भी दें लेकिन यह तब तक संभव नहीं जब तक भारत का जनता स्वयं में सुधार नहीं करती और अन्य से अच्छी बातों को ग्रहण नहीं करती तब तक किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता की बात करना भी बेमानी सिद्ध होगा।

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