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राजनीति (फिल्म समीक्षा)

व्यंग वाण ...थोडा मुस्कुरा लें.....
व्यंग वाण ...थोडा मुस्कुरा लें.....
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राजनैतिक घरानों की कडवी सच्चाई को उकेरती ये फिल्म प्रकाश झा का अच्छा प्रयास है…..पर एक अच्छे निर्देशक से उम्मीदें कुछ ज्यादा होती हैं…..इसलिए अपहरण और गंगा जल के मुकाबलें में ये फिल्म कुछ उन्नीस रह गयी…. फिल्म का कांग्रेस परिवार से जोड़ कर देखना या महाभारत से प्रेरित बताया जाना दर्शको को खींचने में काम आयेगा……
फिल्म के कुछ पात्र महाभारत से मिलते जुलते लगते हैं पर उनका चरित्र उतने संजीदा तरीके से नहीं उकेरा गया….. अजय देवगन महाभारत के कर्ण होने के बावजूद एक छुटभय्या गुंडा ज्यादा लगते हैं…….जबकि कर्ण महाभारत के सबसे महान चरित्रों में एक है जो की दुर्योधन का साथ देने के बावजूद वीरता,की दोस्ती की और त्याग की मिसाल है…
इसी तरह कुछ दुविधा रही की नाना पाटेकर कृष्ण है या शकुनी…….उनका स्थान कृष्ण की तरह है पर काम शकुनी की तरह कर रहे होते हैं…..

एक अच्छी कहानी को कहने के प्रयास में झा साब भूल गए की ये एक राजनैतिक छाया चित्र है….राम गोपाल वर्मा की गैंगवार नहीं……जहाँ कूटनीति से ज्यादा युद्ध छाया रहता है….

कहानी कुछ और जानदार बनती यदि….”रंग दे बसंती” की तरह पार्स्व में महाभारत के द्रश्यों को दिखा के एडिटिंग की जाती…उससे चरित्रों को जोड़ कर देखना आसान हो जाता…..

जैसे की भारती (कुंती ) का सूरज ( कर्ण) के साथ वार्तालाप…. जो की फिल्म में बहुत खोखला लगता है असल में…कर्ण के चरित्र चित्रण में अहम् भूमिका अदा करता है…

फिल्म का अंत खींच तान के महाभारत से जोड़ने की कोशिश की गयी है……..जो की रानजीति कम गैंगवार ज्यादा लगता है……
रणबीर कपूर और मनोज वाजपेयी ने बहुत ही शशक्त अभिनय किया है……

राजनीति के दुर्योधन से जनता कुछ ज्यादा सहानभूति रखती है बनिस्बत भीम और अर्जुन के………
और राजनीति में सारे काले काम दुर्योधन नहीं करता बल्कि कर्ण (सूरज) करता है… सो कर्ण का चरित्र नफरत का पात्र बनता है…..और दुर्योधन से सहानभूति जुड़ जाती है…..

यदि महाभारत से जुदा करके फिल्म को देखा जाए तो निर्देशक दर्शको को एक अच्छा मनोरंजन देने में सफल रहा है……..

मनोज वाजपेयी के “कार्यकारी अध्यक्ष” वाले संवाद गहरी छाप छोड़ते हैं…..

अर्जुन रामपाल ने एक अच्छे मौके को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ी …..और वो कहीं से भी एक राजनेता नहीं लगे…..उनको दिए गए अच्छे से अच्छे संवाद को उन्होनेने बुरे से बुरे तरीके से बोला…

झा साब को भीढ़ वाले द्रश्यों को शूट करने में महारत हासिल है…और इस बार भी उन्होंने इसका पूरा फ़ायदा उठाया…. भीढ़ वाले द्रश्य वाकई फिल्म में जान डाल देते हैं…

मेरी तरफ से ये फिल्म औसत से थोड़ी अच्छी बन पडी है… इसको पांच में से तीन सितारे दिए जा सकते हैं….

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