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अपने कौतुहल , अपने रोमांच,

व्यंग वाण ...थोडा मुस्कुरा लें.....
व्यंग वाण ...थोडा मुस्कुरा लें.....
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अभी दो महीने से कुछ ज्यादा ही यात्राएं रही, हर सप्ताहांत हैदराबाद से दिल्ली आना और फिर वापिस जाना, हवाई यात्रा भी काफी बोरिंग लगने लगी है, मुझे अभी भी याद है जब मैंने अपने पहली हवाई यात्रा की थी,
सन २०००, . मैं आई आई टी , मुम्बई , इंटरव्यू देने गया था, और इसके बाद मुझे आई आई टी ,दिल्ली , पंहुचना था, मैंने कुशीनगर एक्सप्रेस से वापसी का टिकट बुक करा रखा था, गेट में १०३ रैंक होने के बावजूद मुझे बिलकुल पता नहीं था, की मुझे कहां एड्मिसन मिल सकता है, इसलिए जरूरी था, कि हर आई आई टी पहुंच के इंटरव्यू दूं.

मुम्बई में इंटरव्यू देने के बाद मैं, बिना रिजल्ट का इन्तजार किये , मुंबई सी एस टी स्टेशन पहुंचा, लोकल ट्रेन की टिकेट लेना और मुंबई लोकल के मानचित्र का मुझे तीन दिनों में ही अच्छा अनुभव हो गया था,
स्टेशन पहुंच के ऐसा लगा मानो आज सारी मुंबई को कहीं ना कहीं जाना है, काफी मशक्कत के बाद मैं यथा प्लेटफार्म पहुंच गया, मेरे पास सिर्फ एक छोटा सा बैकपैक था, इसलिए दौड़ने भागने में कोई दिक्कत नहीं थी, पर मुंबई मेरे से ज्यादा तेज भाग रही थी,
काफी देर तक मैं, ट्रेन का इन्तजार करता रहा , पर ट्रेन नहीं आई, ट्रेन के टाइम से भी जब दो घंटा ऊपर हो गया, तब जाके अनाउन्स्मेंट हुआ, कि कुशीनगर एक्सप्रेस १२ घंटे लेट है, इसका मतलब दिल्ली का इंटरव्यू तो हाथ से गया, पर मुझे यदि मुंबई में एड्मिसन ना मिला तो क्या होगा, इस ख्याल से दिल फिर बैचैन हो गया, मुझे दिल्ली पहुंचना ही होगा, किसी भी कीमत पर, सुना है, दिल्ली का इंटरव्यू आसान भी होता है,

फिर सोचा, इसी टिकेट से किसी दूसरी ट्रेन में चढ जाता हूँ, पता किया तो मालूम हुआ, की एक घंटे बाद दादर से, दादर अमृतसर एक्प्रेस पकड सकता हूँ, आनन् फानन, बाहर आ के फिर लोकल पकड दादर स्टेशन पहुंचा, मैं प्लेटफार्म पे खडा हो के ट्रेन का इन्तजार कर रहा था, और जैसे कि उम्मीद थी, प्लेटफार्म खचाखच भरा हुआ था, जैसे ही ट्रेन आते दिखाई दी , लोग पटरियों पे कूदने लगे,
(हैं, मेरी आश्चर्य से आँखे फटी की फटी रह गयी, ये लोग क्या करना चाहते हैं )
पर कुछ ही पलों में इसका कारण समझ में आ गया, जब ट्रेन प्लेटफार्म पे आ के खडी हुई तो प्लेटफार्म वाले गेट से अन्दर के लोग बाहर उतर रहे थे और इस बीच पटरियों की तरफ वाले गेट से लोग ट्रेन में चढ़ रहे थे, जब तक उतरने वाले लोग उतरते , दूसरी तरफ वाले दरवाजो से लोग इतना चढ चुके थे, कि ट्रेन फिर ठसाठस भर चुकी थी, मैंने प्लेटफार्म की तरफ वाले गेट से कई बार चढ़ने की कोशिश की, पर चढ़ नहीं पाया, मैं कोशिश करता रहा और ट्रेन चल पडी, मैं प्लेटफार्म पर ही रहा गया, मैं मुंबई जितना तेज नहीं भाग पाया.
पर दिल्ली अभी भी पहुंचना था और समय कम होता जा रहा था, काफी दिमाग दौड़ाया तो सोचा चलो फ्लाइट से चला जाय, मेरे लिए उस वक़्त ये सोच भी पाना बहुत बड़ी बात थी, पर मुझे दिल्ली पहुंचना था , किसी भी तरह,
स्टेशन से बाहर आके मैंने सान्ताक्रुज़ हवाई अड्डे के लिए ऑटो किया और एअरपोर्ट पहुंचा, ५-१० मिनट तो मैं माहौल देख के ही हतप्रभ था, कहां जाऊं , किससे पूछूं ,टिकेट कहां से मिलेगा, मुझे शायद बहुत ज्यादा आत्म विश्वास की जरूरत थी, डर था कि कहीं कोई हुडक ही ना दे, फिर ख्याल आया, शर्माते रहे, तो दिल्ली कैसे पहुचूँगा, मैं एयर इंडिया के काउंटर पर पंहुचा और कहा, “मुझे दिल्ली के लिए टिकट चाहिए,”, एक बहुत खूबसूरत सी लडकी ने पूरे आदर के साथ कहा, “सर, द नेक्स्ट फ्लाइट इज एट सिक्स पी एम्” , मैंने कहा ठीक है, टिकेट कितने का है, … ४७८५ /-
मैंने अपनी जेब से पैसे निकाले और गिनने शुरू किये, सिर्फ ४०७०/-
इतने में टिकेट कैसे आयेगा, मैंने फिर हिम्मत की , कुछ स्टूडेंट डिस्काउंट नहीं है, आई एम् स्टूडेंट, मैंने अपना आई कार्ड दिखाया,,,,
पता नहीं उसने स्टूडेंट डिस्काउंट दिया या क्या किया, और उसने कहा, ठीक है, ” यु कैन टेक इट एट ४०००/-”
प्रॉब्लम सोल्व नहीं हुई थी, क्यों कि मेरे पास सिर्फ ४००० रूपए ही थे, यदि मैं ये टिकेट ले के दिल्ली पहुंच भी गया तो आई आई टी कैसे पहुचूँगा, इसके बाद तो मेरे पास बस के टिकट के पैसे भी नहीं बचेंगे, और फिर वहां खाउंगा पीयूँगा कैसे, और फिर वापिस झांसी कैसे पहुचूँगा, (ये उस जमाने की बातें हैं , जब डेबिट कार्ड, क्रेडिट कार्ड नहीं हुआ करते थे).
दिमाग तेजी से दौड रहा था, और समय भी निकलता जा रहा था, अंत में इस तरह साल्यूशन निकाले गए,
१. दिल्ली एअरपोर्ट पहुंच के औटो करूंगा, आई आई टी के लिए,
२. आई आई टी हॉस्टल पहुचूँगा और किसी सीनियर के रूम में जा के पसर जाउंगा, उसी से ऑटो का किराया भी दिलवाउंगा,
३. सीनियर पैसे भी देगा और खाना भी खिलायेगा,
४. दिल्ली से झांसी विद आउट टिकेट जाउंगा,

थैंक्स टू पियूष सर, मैकेनिकल इंजीनियरिंग ब्रांच मेरे कॉलेज सीनियर,

आज सोच के विश्वास नहीं होता कि मैंने ये किया, जिन्दगी में जब कोई हल नहीं दिखाई देता, तब भी कोई ना कोई हल जरूर होता है,
पिछले १२ सालों में कई हवाई यात्राएं की, कई देशों में घूम आया, और पिछले दो महिनों से हर हफ्ते दिल्ली – हैदराबाद- दिल्ली भाग रहा हूँ,
पर आज भी जब एयरोप्लेन दौड़ता हुआ, अचानक हवा में उड जाता है, तो विश्वास नहीं होता, ऐसा कैसे हो सकता है, इतना बड़ा जहाज सैकड़ों लोगों को भरकर, कई क्विंटल सामान लाद कर . थोड़ा सा दौडता है और हवा में उड जाता है, और उडता ही चला जाता है, हजारों फीट, हजारों हजारों फीट, चाहे हम कितनी भी साइंस पढ़ लें , चाहे हम कितनी भी थ्योरम समझ लें, पर दिमाग को इतना नासमझ बनाये रखना बडा अद्भुत है, जिससे वो इन चीज़ों का रोमांच महसूस कर सके,
अभी भी, हवाई जहाज ने पट्टी पे दौड़ना शुरू किया, जोर जोर से इंजन की आवाज आई, खिड़की के बाहर पीछे भागते नारियल के पेड, और हम अचानक जहाज हवा में, नीचे धीरे धीरे , घर और जमीन, गूगल मैप में तब्दील होते हुए, जमीन पर दिखते हरे हरे चक्कते , भूरे भूरे चक्कते , तभी अचानक सूरज की किरण आँखों में पडी और फिर हलके हलके उडते हुए सफ़ेद सफ़ेद बादल….
दूर दिखती पानी की झील, अलग अलग झुण्ड में दिखाई देते घर, और बीच में बडे बडे मैदान, इन्हें देख के लगता, अभी जमीन की कमी कहाँ है, यूँ ही दाम आसमान छुए जा रहे हैं,
फिर अचानक दिखा, घरों का महासमंदर और हुसैन सागर झील, मैंने उसके आसपास चारमिनार को ढूँढने की कोशिश की पर मुश्किल था,
फिर चौकोर, और आयताकार, करीने से कटे मैदान, इन्हें देख बचपन की गणित की किताब याद आ गयी, जिसमे हम इसी तरह कटे हुए हुए खेतों के क्षेत्रफल निकाला करते थे ,
तभी मैंने देखा एक लम्बी सी सर्पा कार नदी, ये कौन सी नदी है, सोच नहीं पाया, (चलो गूगल पे ढूंढूंगा ),अब हम नदी के बिलकुल ऊपर हैं, अब ये कुछ ड्रैगन के अकार में दिख रही है,
नदी के दोनो किनारों पर थोड़े थोड़े अंतराल पे पे घरों का झुण्ड , (सिन्धु नदी घाटी सभ्यता, नदी के किनारे ऐसे ही विकसित हुई होगी)
नीचे हौले हौले उड़ाते सफ़ेद, नीले बादलों का झुण्ड, दिल करता कि काश कूद पडूं और इनपे बैठ जाऊं , पर फिर साइंस के नुक्ते दिमाग में आने लगते, कि बेटा ये कुछ नहीं सिर्फ हवा के गोले हैं, फिर कूदने का ख्याल दिल में नहीं आया, शायद पढ़े लिखे होने का यही नुक्सान है, कि कल्पना का असर कम हो जाता है,

मेरे साहित्यक गुरु श्री अवधेश जी, अक्सर मुझ से कहा करते थे , “अमित तुम मोबाइल फ़ोन बनाने की कंपनी में काम करते हो, यार मुझे एक चीज़ बताओ, मुझे आज तक ये बात समझ नहीं आयी, कि हजारों मील दूर बैठा आदमी इस छोटी सी डिबिया में बोलता है, और मुझे ऐसे सुनायी देता है, मानो मेरे सामने बैठ के बोल रहा हो, ये कैसे संभव है ”
तब मेरा रिएक्शन कुछ ऐसे होता, ” अरे गुरु जी,कुछ नहीं, ये तो बड़ी आसान सी टेक्नोलॉजी है, और फिर ,में उन्हें सेलुलर सिस्टम के बारे में समझाने लगता” ये बात अलग है, इस ज्ञान से उनका आश्चर्य कम नहीं होता.,
आज सोचता हूँ तो पाता हूँ, हरेक पीढी की अपनी धरोहर है, ये रोमांच, ये सिर्फ वही लोग महसूस कर सकते हैं” जो उस दौर से होकर गुजरें हैं,
आगे आने वाले पीढी के लिए, ऐसी कई चीज़ें रोमांच और कुतूहल का विषय नहीं होंगी, पर शायद वो अपने लिए नए कुतूहल और नए रोमांच पैदा कर लें,

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