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जब हम पैदा होते हैं, तब ईश्वर हमें एक शक्ति देकर भेजता है, शक्ति सच को समझने की..इस शक्ति के बल पर हम सही और गलत तय कर सकते हैं, बड़ी आसानी से….ऐसा सच निरपेक्ष होता है…निर्मल होता है.. और मासूम भी… हम किसी को भी देख के बता सकते हैं की वो सही है या गलत… हम अपने सही गलत का भी संज्ञान कर सकते है….बिलकुल आसानी से…
पर समय के साथ हम इस शक्ति को खो देते हैं…. हम सही गलत नहीं पहचान पाते,,, और फिर हमें सही गलत के निर्णय के लिए तार्किक बौद्धिकता का सहारा लेना होता है…. ये तार्किक बौद्धिकता हमें हमारे आस पास के वातावरण से मिलती है, माता पिता से मिलती है, या सहयोगियों से मिलती हैं…मजे की बात ये है की हमें बचपन से वो आंतरिक शक्ति से सच को पहचानने की आदत हो चुकी होती है….और हमें पता भी नहीं होता की हम वो शक्ति खो चुके हैं..पर तब तक हमारे मन में अहंकार का आवरण चढ़ चुका होता है… फिर हमारा सच सापेक्ष हो जाता है..हमारे स्वार्थ, हमारे ज्ञान, हमारी किताबो, व्यक्तियों या शिक्षको से लिए गए ज्ञान पर पूरी तरह से निर्भर…. इस ज्ञान से हमारी तार्किक शक्ति बढ़ती जाती है और हम एक भ्रम पाल लेते हैं, की सही गलत का निर्णय मैं कर सकता हूँ क्योंकि मेरी तार्किक बौद्धिकता सुद्रण हैं….. ये भ्रम किताबी ज्ञान से नहीं आता, आसपास के वातावरण से आता है…
क्यों की उम्र के साथ हम वो शक्ति खो चुके होते हैं या क्षीण कर चुके होते है, हम परिस्थति को अपने ज्ञान के आधार पे तय करने लगते हैं, (यहाँ ज्ञान का तात्पर्य शिक्षा से ज्यादा वातावरण से हैं) हम निर्णय लेने के लिए अपनी तर्क शक्ति का इस्तेमाल करते हैं, और जो हमें तर्क के तराजू पे ठीक लगता है, हम उसे सच मान लेते हैं… पर हम ये भूल जाते है, की सच तर्क से नहीं संवेदना पर भी निर्भर करता है…
यदि सच सिर्फ तार्किक होता तो सिद्धार्थ कभी बुद्ध न बन पाता….घायल हुआ हंस देवदत्त को मिल जाता….
चाणक्य ने कहा था, “देश के भविष्य निर्माण का दायत्व शिक्षको पर होता है”, चाहे वो जे एन यू का मसला हो या जाट आंदोलन का, चूक कहीं नहीं कहीं शिक्षक और शिक्षा प्रणाली से ही हुई है, हम देश को संस्कारित युवा नहीं दे पाये जो एक सभ्य समाज का निर्माण कर पाते… पता नहीं किस ज्ञान विज्ञान की बातें करते हैं हम, जब की लोगों में मामूली मानव संवेदनाये भी नहीं है…दरअसल हमारे विचार संवेदनाये वैसी ही हो जाती है, जो हमें पढ़ाया जाता है, या सिखाया जाता है…
आज़कल देश में तीन तरह के युवा हैं. जो की तीन तरह की शिक्षा प्रणाली से विकसित हुए हैं यहाँ हर किसी को कुछ न कुछ चाहिए जिसपे वो गर्व कर सके,
एक वो जिसको हम जे एन यू टाइप का बोलते हैं पर ऐसे लोग जे एन यू तक सीमित नहीं है, ऐसे लोगों के जीवन का सबसे बड़ा संतोष ही यही है की वो बुद्धिजीवी है, और ये सोच उनको उनकी शिक्षा देती है, इस शिक्षा में उन्हें सच के दो पहलू बताये जाते है और फिर सिखाया जाता है की कैसे, उस पहलू को सच साबित करे…जो उनके वातावरण के हिसाब से सही लगता है..इससे उन्हें मदद मिलती है की वो अपने आप को भीड़ से अलग कर सकें और अपने हर काम को सही मान सके, क्यों की बुद्धिजीवी तो वही हैं सिर्फ..ख़ास बात ये हैं की इस तरह की शिक्षा में उन्हें ऐसा कुछ नहीं बताया जाता जिससे वो अपने अतीत या इतिहास पे गर्व कर सकें, बल्कि ऐसे लोग अपने इतिहास पे हमेशा शर्मिंदा रहते हैं….जब ये इतिहास पे गर्व नहीं कर सकते तो ये राष्ट्र विशेष के प्रति समर्पित नहीं होते, ये विचार विशेष के प्रति समर्पित होते है…….इन के जीवन का लक्ष्य विद्रोह हो जाता है…विद्रोह सब से … बस विद्रोह…और इस काम में तार्किक वौद्धिकता उनके अंहकार को पालने का काम करती है…यदि लोग इनके सच को ही सच मान भी ले… तब भी ये विद्रोह करेंगे….क्यों की विद्रोह और शक इनकी बौद्धिकता की नीव होती है.
दूसरे तरह के युवा वो हैं जो हमने जाट आंदोलन में देखे, दरअसल इन्हे तो कुछ ख़ास बताया भी नहीं गया, ये सिर्फ कहने के लिए शिक्षित है, क्यों की इन्होने वर्तमान शिक्षा प्रणाली के हिसाब से डिग्री ले रक्खी है…. ये उस खुले सांड की तरह हैं, जिस पे असीमित ताकत है पर दिशा नहीं है….संस्कार तो इनमे बिलकुल भी नहीं है….इनको t
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