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वो नन्ही नन्ही उँगलियों का स्पर्श जादुई था, मैंने उन मासूम हथेलियों को थामने की कोशिश की, इतना संभाल के, कि जैसे मैं किसी तितली के पंखो को छूना चाहता हूँ, ख्याल रखते हुए कि मेरे छूने से कहीं तितली डर ना जाए, मेरे छूते ही उसके चेहरे पर एक मुस्कान दौड़ी, उसकी मुस्कान में एक सुकून था, एक ऐसा सुकून कि मैं उस पल इस ख्याल से भी विमुक्त था कि मैं एक जीव हूँ, एक बच्चे कि हंसी मेरे जीवन में कितना परिवर्तन कर सकती है ये मुझे उस पल अहसास हुआ, मेरी एक मात्र ख्वाहिश थी के वो ऐसे ही मुस्कुराता रहे, ऐसा क्या रिश्ता था, ऐसा क्या भाव था जिसे शब्दों में व्यक्त करना संभव नहीं था,
उसके दूसरे हाथ में एक प्लास्टिक की गेंद थी, मैंने बच्चे को गोद में लेने की कोशिश की, और वो गेंद उसके हाथ से गिर गयी, बच्चे के चेहरे के भाव बदले, कुछ चिंतित लकीरें जैसे उससे कुछ खो गया हो, मैं नीचे झुका गेंद उठायी और बच्चे के हाथ में थमा दी, बच्चे के चेहरे पे खुशी दौड़ी, पर उसने वापिस गेंद जमीन पर फैंक दी, मैंने फिर गेंद जमीन से उठाई और बच्चे के हाथ में दे दी, बच्चा फिर चहक उठा और उसने गेंद फिर जमीन पे फैंक दी, मैं बार बार गेंद उठा के हाथ में देता और वो बार बार गेंद जमीन पे फैंक देता,
हर बार जब मैं गेंद उठा के उसके हाथ में थमाता मुझे एक संतुष्टि का अहसास होता, मैं बिलकुल भी व्यग्र नहीं था, वास्तव में उसके चेहरे की वो हंसी देखने के लिए मैं ये घंटो कर सकता था, मुझे वो संतुष्टि थी कि बच्चा गेंद को पा लेना चाहता है, और इस कार्य में , मैं उसकी मदद कर रहा हूँ, सहसा मेरे मस्तिष्क का ये पूर्वाभास दूर हो गया,
वास्तव में, बच्चा गेंद को पा लेने से खुश नहीं था, बल्कि वो इस बात से उद्देलित था, कि गेंद के गिर जाने पर मैं उसे उठा के गेंद जरूर दूंगा, वो अपने विश्वास को पलता देख खुश था,
( इस बात का अहसास कि मैं किसी पे भरोसा कर सकता हूँ, दुनिया कि सबसे बड़ी खुशी है),
वो इस प्रक्रिया से खुश था, ना कि प्राप्ति से, एक १४ माह के बच्चे ने मुझे आज जिन्दगी का पाठ पढ़ा दिया था,
“जिन्दगी की खुशी, प्राप्त करने की प्रक्रिया में है, प्राप्ति में नहीं”
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