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आधुनिक सदी मानवीय कौतूहल, जिज्ञासा और ज्ञान से स्वयं को इतना ज्यादा आगे समझ गया है कि वह अपनी स्वयंभू विचार के साथ भोग विलास की मानसिक वृत्ति को सर्व प्रकार से सफलता तथा जीवन का लक्ष्य एवं कृतित्व ही मानने लगा है. जिसके परिणाम स्वरूप मानवीय अक्षमता और अविवेक ने सर्वथा एक नए आधुनिक सिलसिले की तरह जीवन शैली को निर्मित करने को ही अख्तियार किया है, जिसके नतीजे में जीवन की सफलता ने सभी मान्यताओं को ध्वस्त करने की ठान ली है.
ऐसे ही विचारधारा के प्रवाह और प्रभाव ने अनाचार को भारी प्रश्रय दे दिया. आज अनेक उदाहरण आते रहते हैं, जिसके द्वारा अनाचार-व्यभिचार की जम चुकी बरगदी शैली का आभास जरूर होता है. पिछले कुछ वर्षों या दशक से मानवीय विकृति के फलस्वरूप घटित होने वाली अनाचारी, दुराचारी या व्यभिचारी गतिविधियों में निरंतर बढ़ोतरी से मानवतावादी बौद्धिकता घायल अवस्था की ओर अग्रसर है.
कहना न होगा की निर्भया कांड से लेकर प्रद्युम्न हत्या की विभीषिका ने देश की आत्मा को झकझोर कर रख दिया. थोड़ा भी चिंतनशील मानव ऐसे जघन्य वारदात से हिल गया. रही बात इन्हीं कड़ी में तथाकथित बाबा किस्म से आसाराम, राम रहीम के सदृश विकृत स्वरूप को उद्घाटित होने की तो दीगर है कि इन छद्म बाबाओं ने इतने अधिक फैलाव बना लिए कि इन पर सीधे कार्यवाई बड़े सैन्य प्रक्रिया जैसी हो गई. कहने का मतलब यह कि घटिया और अमान्य हिंदुस्तानी शैली के वैचारिक प्रभाव ने अपना वर्चस्व तुरंत तो नहीं बना लिया.
तय है कि ऐसी विकृत मनोज्ञान ने कहीं न कहीं छिद्रों से समाज व विचार में प्रवेश किया है तथा स्थान सुनिश्चित भी किया, जिससे भारी रूप में अनाचारी-व्यभिचारी मनोज्ञान को प्रश्रय मिला है. इसी का प्रतिफल है विकृत भोग विलासी मनोवृत्ति. दूसरे जब इन आपराधिक प्रवृत्तिक-कृत्यों के प्रति कड़ाई का सवाल हुआ, तो बहुधा कामचलाऊ क्रिया-प्रक्रिया से काम लेकर लीपापोती करने की शैली ही प्रदर्शित होती है.
जहां तक सामाजिक स्तर से ऐसे मनोज्ञान के प्रति विचारधारा का प्रश्न है, तो यह लगभग सुनिश्चित है कि जब तक ऐसे भारी भरकम स्वरूप में इन विकृत मनोविज्ञानी दुष्प्रवृत्तियों को महिमा मंडित तथा प्रदर्शित करने में बड़े व समर्थ लोग लगे रहते हैं, ऐसी वृत्ति पोषित होती रहती है. इसके पीछे अपनी तात्कालिक सफलता एवं लाभ मात्र देखकर इस आधुनिक कुरीतिगत विचार को उर्वरता जैसी विस्तार की भूमिका दी जाती है और चकाचौंध भी उत्पन्न कर दिया जाता है. फिर तो ये नीति ही नए कुरीति के लिए ही चमत्कृत करने की योजना का प्राकट्य हो जाती है.
मगर जिस प्रकार चातुर्दिक एवं विभिन्न स्तरों से दिखता है कि ऐसे अंधकारपूर्ण व अधकचरा ज्ञान ( अज्ञान ) जिसमें मानवीय मूल्यों की जगह ऐश-मौज की भोग-विलाषी तकनीक को ही देहधारी मनुष्य के जीवन का सत्य मान लिया जाता है, तो समूची दृश्य श्रृंखला “पूंछ विहीन पशुओं “को चरितार्थ करती है.
सबसे हास्यास्पद तो यह कि अनाचार-व्यभिचार की समस्या को सामाजिक स्तर में प्रवेश व फैलाव रोकने की जगह मात्र घटित को ही लक्ष्य किया जाता है. जिससे दुष्प्रवृत्तियां घटती तो नहीं, उलटे और भी प्रचारित तथा आकर्षित करके अबोध की अनजानी परिकल्पना भी निर्मित कर देती हैं. तात्पर्य यह कि सीधी कार्रवाई घटित तक तो सही है, परन्तु ऐसे अमानवीय तथा अनैतिक प्रवृत्तियों को रोकने के लिए बड़ी विशद प्रक्रियागत योजना से काम लिया जाना आवश्यक है. वरना इन कृत्यों पर होने या चलने वाली कार्रवाईगत सिलसिला मात्र दुम पकड़कर दुष्प्रवृत्ति को छेड़ना व तमाशा साबित करना ही रह जायेगा.
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