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सभी बाराती अपना स्थान लेकर बैठ गए। तिलोकत्सव का कार्यक्रम प्रारंभ हुआ। एक-एक करके चढ़ावे का सामान वधू का भाई वर से स्पर्श कराके रखने लगा। मंत्रोच्चार लगातार चलता रहा। उसके उपरांत वधू के पिता को वर के हाथ में नकद मुद्रा देने का निर्देश पुरोहित तथा मध्यस्थ द्वारा दिया गया। तभी वधू के पिता से ठीक पीछे बैठे उनके भाई के लड़के (भतीजा) ने हस्तक्षेप कर कहा- चाचा, हम लोग के यहाँ रस्म है कि वर को छेका (तिलकोत्सव पूर्व रस्म) में दिए गए नकदी को ही लेकर पुनः वापस किया जाता है। वधू के पिता ने सहर्ष सहमति जताई।
इस परिस्थिति से वर असहज हो गया। वह सोचने लगा कि वे रूपये उसने रखे भी हैं या नहीं। याद नहीं आने पर वह थोड़ा परेशान होकर तनाव में आ गया। फिर उसका विवेक आवेश में क्रोध की ओर बढ़ने लगा।
तभी वर के पिता ने वहाँ आकर मध्यस्थ को कुछ कहा, तो मध्यस्थ ने वधू के पिता से ज्यादा नकदी की बजाय मात्र रस्म अदायगी के लिए सुझाव दिया। वधू के पिता ने झटपट 50 रुपये का नोट वर के हाथ पर रख दिया।
एक तो वर रस्म के ओट में दबाव से आवेग में था, तभी मात्र 50 रुपल्ली का नोट हाथ में देखकर अपमान से डगमगा सा गया। चेहरा लाल और पसीने से तरबतर हो गया। मगर सारी स्थिति एकदम सामने थी। समझ तो वह गया ही था, इसलिए चुप रहा। वधू के उक्त भाई की ओर देखा। वर को महसूस हुआ जैसे वह कहासुनी और हंगामे के लिए बेताबी से इंतज़ार कर रहा था। वर ने मौन का मंत्र ही पकड़े रहना ठीक समझा। उसका आवेग नियंत्रित होने लगा। वधू पक्ष को कार्यक्रम समाप्त होने पर भोजन के लिए चलने का आग्रह हुआ।
मंडप से उठने के पूर्व वर ने देखा उसके पिता दूर से ही पूरी प्रक्रिया पर अनुभवी दृष्टि जमाए थे। वधू पक्ष का भतीजा अपनी विफलता से शर्मिन्दा हुआ था, उसे भी ज्ञान हो गया। वह अपने पर नियंत्रण रखकर रस्मों की ओट में हंगामे और दो परिवारों की बेइज्जती को सँभालने में पिता के मार्गदर्शन से सफल हो गया था।
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