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कहने की और प्रमाणित करने के लिए कोई विशेष यत्न अथवा व्यवस्था की जरूरत हरगिज नहीं कि तलाक़ ने आजकल हिन्दुस्तान में सोच व चिंतन में अपना अपार्टमेन्ट तो बना ही लिया है. साथ में सैकड़ों मामले निरंतर बने और बनाये भी जा रहे हैं. जिस हिन्दुस्तान ने जीने मरने की परिकल्पना को वैवाहिक आचरण के परिचायक स्वरूप से घनिष्ठ सम्बन्ध के लिए शोधित व परिवर्धित करने की भूमिका को अपेक्षित रूप में सैकड़ों वर्ष में संशोधित रूप से अंगीकृत किया, उसी माहौल में तलाक़ की दुर्भाग्य शैली प्रभाव बनाने में विशिष्ट स्वरूप के जद्दोजहद की भूमिका से असरकारक भी होता रहा.
इस लिहाज में विदेशी भाव भूमि के अनैतिक पृष्टभूमि ने सहजता से अपना कार्य किया. जिसमें विशेष चमक दमक, राज्य – धन , प्रभुत्व और प्रेम-वासना जैसे मानवीय मनोविकृति ने पाश्चत्य शैली से भरपूर उत्प्रेरण पाया. नतीजतन जन्म जन्मांतर जीवन साथी की भूमिका गौण होती भी रही.
परिणामस्वरूप जीवन संगिनी ने ‘ संगत मात्र (पार्टनर)” भाव की रूपरेखा तक की हद में सीमितता की ओर ही रुख ले लिया मानो. हिन्दुस्तान के सन्दर्भ में मध्यकालीन ऐतिहासिक राजनितिक अपेक्षा में इस प्रकार के वैवाहिक सम्बन्धों की तार्किक और तात्कालिक वैधानिकता पूर्ण सामाजिक मान्यता भी सिद्ध है. लेकिन इतने के बावजूद उन दिनों भी तलाक़ जैसी भ्रांतियों ने समन्धों को जोड़ने के लिए दीवार गिराने के सामान रचनात्मक मान्यता निश्चित नहीं पाई.
तात्पर्य यह दिखता है की विशेष रूप से अंग्रेजी शासन तथा पाश्चत्य भूमिका ने हिन्दुस्तान में तलाक़ की रूप रेखा को प्रगाढ़ किया. इस सन्दर्भ में इतना भी तय है की भारत में कोई भी धर्म मानने वाले चाहे इस्लाम में ही स्त्रियों की दशा दयनीय अवश्य भी थी, तो भी तलाक़ ना के बराबर ही था. मतलब तलाक़ की अवस्था के द्वारा मान्य रूप से स्त्री को धक्के मारने की दशा नहीं थी.
निश्चित रूप से किंचित साधारण हिंदुस्तानी भी इससे परहेज करता लगता था, लेकिन इन स्थितियों में मानवीय कुरीतिगत भूमिकाएं जरूर रहीं. ऐसे ही चलते हिंदुस्तानी जनजीवन ने आजादी के स्वाद से परिचय और मान्य तलाक़ स्थितियों के साथ ही भागते भूत की लंगोटी सदृश्य आधुनिकता तो पकड़ ही ली. जिसने वैवाहिक साथ निभाने की अवधारणा ने अन्य साथ के उपरान्त पूर्व सम्बन्ध को बाध्यकारी समझ लिया. कारण जीवन प्रक्रिया की दुरूह व्यवस्था में राजे रजवाड़ों व पाश्चात्य शैली के आंतरिक विषधर परम्परा जीव लपलपाती लगने लगी.
इसके पीछे स्वयं की कुंठा रही या दूसरी दुर्भावना, मगर बाधाएं निर्मित हुईं. फिर तो तलाक़ की विषबेल धार्मिक मान्यता से या आजाद हिंदुस्तान की प्रभुता संपन्न कानूनी व्यवस्था से निरंतर सिंचित होने लगी. आज की तारीख में सामाजिक मान्यता के साथ और कानूनी प्रवधान के मार्फ़त तलाक़ की परिपाटी जायज व मान्य है, तो सर्वथा अंगीकृत भी. अब तीन तलाक़ की बात सीधे इस्लाम से ताल्लुकात की है, तब यह धार्मिक मान्यता के घेरे में बहुतायत से स्त्री प्रताड़ना के लिए उत्तरदायी समझा गया. चूंकि अनेक प्रकार से ऐसे मामले आये, जो सामाजिक तौर पर भारी क्षोभ व आक्रोश के गवाह रहे.
सरकार इस पर सीधे कोई निर्णय करने में अपनी गर्दन बचने भी चाहती रही और साथ ही श्रेय लेने की गुंजाइश भी बनाने में रही, लेकिन गले में घंटी बांधने का भार तो माननीय सर्वोच्च न्यायालय को ही करना पड़ा. मगर जितनी शीघ्रता से सुप्रीम कोर्ट ने तीन तलाक़ को अवैध करार करने में दिलचस्पी दिखाई वह स्वागत योग्य है. ऐसे ही जनता के अन्य मामले भी निपटाए जाएँ तो देश का विश्वास न्याय के प्रति और बढ़ेगा.
अब आगे जिस रूप में सरकार को इसके लिए कानूनन रोकथाम और विवाद-निर्माण की जिम्मेदार गुंजाइश है वह निश्चित ही सरकार के लिए चुनौती है. साथ ही सम्भव है कि सामान्य तलाक का मुद्दा संवैधानिक रूप में ही आगे एक अलग व व्यापक सामायिक समस्या सिद्ध हो तो आश्चर्य नहीं. क्योंकि जिस रफ्फ्तार से सामाजिक, पारिवारिक और व्यक्तिगत गरिमा का क्षरण हो रहा है, वह ही भविष्य के लिए आधार रचना भी निर्वाह करेगा. कुरीतियों को सामाजिक फलक से प्रतिबंधित करना आवश्यक है, लेकिन यह भी ध्यान रखना पड़ेगा कि नई प्रकार की आधुनिक प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कुरीतियों का निरंतरता से प्रष्फुटण भी ना हो. इस लिहाज से शासन की अपेक्षा जनभागीदारी कारगर है.
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