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कोविड-19 और सामाजिक आवश्यकता

anahat
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कोविड वैसे तो विश्व के लिये अत्यन्त दुःखद दुर्घटना है। हजारों की संख्या मे लोगों के प्राण तो ले ही रहा है लाखों लोग भुखमरी के कगार पर हैं या भुखमरी के शिकार हैं । पर भारत के परिप्रेक्ष्य मे समाज के वे सभी लोग जो मजदूर वर्ग के हैं, जो निम्न मध्यम श्रेणी के हैं या मध्यम श्रेणी के हैं वे सभी दैनिक आवश्यकता को भी पूरी करने मे वर्तमान मे अक्षम हैं । चाहे वे जिस भी संस्थान मे कार्य कर रहे हों वे सभी संस्थान आज विरान पडे हैं। कार्य नहीं है । सुविधा नहीं है कार्य प्रारम्भ करने की । सुरक्षा प्रदान करने की। अतः कार्य प्रारम्भ करने की इच्छाशक्ति के होते हुये भी सभी संस्थान के मुखिया संशयापन्न हैं । क्या करें के अलावा कुछ सूझ नहीं रहा है।

 

 

 

थोडी बात सरकार की कर लेते हैं । सरकारें जिम्मेदारी का निर्वहन कर रहीं हैं। सरकार की जिम्मेदारी है अपने लोगों के प्राणों की रक्षा करना। सरकार कर रही है- लॉक डाउन लागू कर के। भूखमरी को कम करने के लिये लोगों को आर्थिक मदद प्रदान करते हुये अन्नभंडार के अनाजों तक लोगों तक पहुंचा रही है सरकार । यह सरकार की जिम्मेदारी भी है । इसी लिये तो सरकार होती है । सरकार पहले टैक्स के रूप मे अमीरों से पैसे लेती है फिर जिनको आवश्यकता होती है अर्थात् जो अपनी रोजमर्रा की व्यवस्था स्वयं नहीं कर सकते हैं उनकी सहायता करती है। अतः सरकार उपरोक्त व्यवस्था कर रही है । पर 130 करोड की आबादी मे प्रत्यक्ष कर दाता हैं कि कितने ? प्रतिशत मे देखा जाय तो 10 से 15 प्रतिशत। बाकि अप्रत्यक्ष कर दाता हैं। इस प्रकार सरकार के पास जो पैसा आता है वह एक सीमित मात्रा मे है।

 

 

अन्नभंडार भी सरकार के पास जनसंख्या के हिसाब से अत्यनत अल्प हैं। बाकी का अन्न किसान और व्यपारियों के पास है। किसान का अन्न सरकार क्रय नही कर पाती है अतः बहुत मात्रा मे वह किसान के पास या व्यपारियों के पास चला जाता है। इस कारण से दिल खोलकर गरीबों की मदद हेतु बनी सरकारें भी अब गरीबों की मदद के लिये अपने हाथ खडी करने के कगार पर आ गई हैं । और अब उनको भी लॉकडाउन रास नहीं आ रहा है ।  आना भी नहीं चाहिये । पैसे समाप्त हो जाने और अन्न भंडार खाली हो जाने की स्थिति मे सामाजिक विद्रोह की परिस्थिति बन जायेगी। अतः कुछ व्यापारिक संस्थानों कलकारखानों को चालू करना हीं पडेगा । जहां कामगार काम पर लौटे और अपनी मदद करते हुये सरकारी मदद की आस से निराश होने की तरफ अग्रसर हो सकें । पर क्या वे सभी लोग जिन्हे दिहाडी मजदूर कहा जाता है जो आज तक सरकारी मदद को सोचे बिना अपनी आजिविका का संचालन सुख पूर्वक कर रहे थे काम पर लौट पायेंगे कहा नहीं जा सकता है ।

 

 

 

यह सभी कामगार वर्ग 80 प्रतिशत विस्थापित के रूप मे पाया जाता है । अब वे सभी अपने गृह नगर को लौट गये हैं या लौटने लगे हैं । पर वहां जहां गये हैं वहां न कलकरखाने हैं, न कंस्ट्रकशन कार्य है, न बडे बडे कार्यालय हैं, न मॉल हैं और ना ही भंडार घर हैं जहां साफ सफाई, बोझ उठाना, कुदाल चलाना, रंगाई, सुरक्षा व्यवस्था आदि का कार्य कर सकें। अगर यह सब रहता तो वे विस्थापित ही क्यों होते ? अतः वे कैसे आजिविकोपार्जन करेंगे पता नहीं ।

 

 

आइये कुछ विचार करते हैं कि इस भूखमरी की समस्या का निदान क्या है ? निदान शब्द यहां अपने मौलिक एवं प्रचलित दोनो अर्थों के लिये रखा हूं । निदान का मौलिक अर्थ है कारण और प्रचलित अर्थ है समाधान। अतः कारणात्मक निदान पर पहले विचार करते हैं । जब तक भारत मे मशीनी युग का प्रभाव अपने पूर्णरूप मे नहीं था यह विस्थापन कुछ प्रतिशत हीं था। प्रत्येक गांव, ब्लाक, अनुमण्डल, प्रमण्डल और राज्य अपने यहां कुछ न कुछ उत्पादन कार्य करता था । यही कारण है कि राज्य के बहुतेरे स्थान अपने लिये एक विशेष पहचान रखते थे। अगर उत्तर-प्रदेश को हीं एक न्यादर्श के रूप मे लिया जाय तो यहां के प्रमुख शहर जैसे- 1-अलीगढ़ मे  ताला निर्माण, 2-आगरा और कानपुर मे  चमड़े के उत्पाद, 3-आजमगढ़ मे काली मिट्टी की कलाकृति, 4- गाजियाबाद मे यांत्रिकी उत्पाद, 5-गोरखपुर मे मिट्टी के बर्तन (टेराकोटा), 6- चंदौली मीर्जापुर मे  जरी-जरदोजी और कालीन, 7-जौनपुर  मे ऊनी दरी, 9- फीरोजाबाद मे कांच के उत्पाद, 10- लखनऊ मे चिकनकारी और जरी-जरदोजी, 11- वाराणसी मे रेशम उत्पाद, 12- मुरादाबाद और हाथरस मे पीतल के बर्तन निर्माण हेतु प्रसिद्ध स्थान हैं।

 

 

यही हाल इस देश के अन्य राज्यों का भी था । ग्रामीण स्तर पर लकडी के कार्य, मिट्टी के बर्तन निर्माण के कार्य, भवन निर्माण कार्य आदि आज भी किये हीं जाते हैं । इस प्रकार देखा जाय तो उद्योगों की तरफ सरकार का उन्मुखीकरण, चमकीलापन का आकर्षण, अत्यधिक निर्माण हेतु मशीनी वातावरण की सुलभता का अभाव आंचलिक उद्योग या लघु-उद्योग को नकारने का प्रमुख कारण बना । जिसके कारण उत्पादन तो बढा पर घरेलू उद्योग बन्द हो गये और मजदूरी प्रथा का वर्चस्व आज देश की प्रमुख समस्या बनी हुयी है । काम की तलाश मे विस्थापन अपने चरम पर पहुंच गया है । यह विस्थापन केवल भारत के अन्दर हीं नही है । भारत के कामगारों का भारत के बाहर भी होने लगा है । खाडी देश और अमरीका तो भारतीयों के प्रमुख कार्यस्थल बन गये हैं । अतः इस विस्थापन को रोकने हेतु विचार करना आवश्यक हो जाता है ।

 

 

 

अतः सरकार फ्री की सुविधा प्रदान करती रहेगी । पर आलस्य प्रधान देश मे विस्थापन कभी नहीं रुकेगा । समाधानात्मक निदान पर यदि विचार करें तो विभिन्न सरकारों को चाहिये कि वे भारत के प्रसिद्ध या कम प्रसिद्ध उन स्थानों की पहचान करे जो स्थानीय तौर पर कामगारों को काम प्रदान कर सकें । उन घरेलू उद्योगों को पुनरुज्जीवित करने का इस प्रकार प्रयास किया जाय की  इससे उन स्थानों के अधिकांश लोगों को काम प्राप्त हो सके । प्रायः सब की मूलभूत जरुरते वहीं पूरी हो जाया करेंगी । महामारी तो छोडिये महोदय, सामान्य दिवसों मे भी जनसंख्या के अनुपात मे रोजगार का सृजन अल्पतर हीं रहेगा और खाने के लाले और प्राणों के लाले दोनो पडते ही रहेंगे । सरकार हमेशा ही विफल होगी और सामाजिक विद्रोह, वैमनस्य, व्यक्तिगत भेद-भाव आदि अनन्त काल तक इस धराधाम मे अभिव्याप्त रहेंगें । सरकार रिंगमास्टर का रोल अदा करेगी। निम्न मध्यम वर्ग गरीब बनेगा, गरीब दिहाडी, अमीर धनपति । सरकार की तरफ स्वाति बूंद की आस लगाये भारत की आम जनता अपने प्राणोत्सर्ग की ओर अग्रसर होती ही रहेगी ।

 

 

 

नोट : ये लेखक के निजी विचार हैं और इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी हैं।

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