kavita
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जल रही है धरती
जल रहा है गगन
आग उगल रही है
ज़मीं और पवन
झुलसाती है धूप
तरसाती है पानी
ये गरमी भी ना जाने
लेंगी कितनी जानें
लू के थपेड़ों ने
बरपा रखी है आग
सूरज की किरणे भी
जला रही है गात
दिन गिनते पल बीते
आस वर्षा-आगमन की
समय है नेह बरसने का
औ बुझ जाए तपन धरा की
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