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यह प्रश्न सदियों से अनुत्तरित रहा है कि सच्चा सुख कहां है? कम से कम इस धरती पर तो नहीं है। अगर रहता तो तथागत गौतम बुद्ध इस संसार को दुखों से परिपूर्ण नहीं मानते। कहा गया है कि संतोष में ही सच्चा सुख है, लेकिन इस संसार में संतोष करना बड़ा ही मुश्किल है। यहां माया सबको भरमाती रहती है। उस माया से परे कुछ भी नहीं है, स्वयं मायापति भी महामाया की आज्ञा के गुलाम हैं। महाभारत में सुयोधन कहता है कि भगवान, मैंने तो पापकर्म किए परंतु करवाया तो तुमने ही। इतना तो निश्चित है कि संसार में रहते हुए सुखों की प्राप्ति असंभव है। सर्वत्यागियों का जीवन व्यतीत करने के बाद ही मोक्ष प्राप्त हो सकता है। परंतु इस नश्वर संसार में माया, मोह, ममता, लालच आदि फंदे इंसानों को जकड़े हुए हैं। जितना लोगों को मिलता है, उतनी ही भूख बढ़ती है, ‘जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाहीं।Ó भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि लालच तीन प्रकार के होते हैं, कनक, कांता और कीर्ति। यानी धन, स्त्री और सम्मान का लालच। इन तीनों प्रकार के लालच से छूटे बिना मोक्ष की प्राप्ति असंभव है। ठाकुर रामकृष्ण परमहंस प्रार्थना करते थे-मां, यह लो अपना सत, यह लो अपना असत, यह तो अपना बुरा, यह लो अपना बुरा, मुझे शुद्ध भक्ति दो। कहते हैं कि एक बार एक पागल साधु मां दक्षिणेश्वरी काली के मंदिर में आया। किसी ने उसकी ओर ध्यान नहीं दिया। जब शाम हुई और उसे भूख लगी तो उसने फेंके गए उस भोजन को खाया जिसे पहले से कुत्ते खा रहे थे। फिर नाले का पानी पीकर उसने वह अनुपम भक्ति दिखाई कि पूरा मंदिर परिसर दिव्य कांति से भर गया। ठाकुर ने अपने भांजे को उसके पीछे छोड़ दिया। तब उस पागल साधु ने कहा कि जिस दिन तुझे नाले का पानी और गंगा का पानी एक समान प्रतीत होगा, उस दिन मोक्ष की प्राप्ति होगी। मोक्ष यानी भेदबुद्धि से परे। भगवान बुद्ध के शिष्य विमलकीर्ति का कहना है, मोक्ष पाया नहीं जा सकता, जब सब पाना छूट जाता है तो जो बचता है वह मोक्ष है। कितना करीब है विमलकीर्ति, जब तृष्णा छूट जाएगी तो मोक्ष प्राप्त होगा।
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