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ज्यादातर परिवारों में उपेक्षित ही हैं बेटियां

सपनों को चली छूने
सपनों को चली छूने
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हर एक दिशा में मैं छाई,

नभ और गगन मेरी आभा,

मैं ‘गृहलक्ष्मी,’ मुझसे ही

है इस पूरे ग्रह की शोभा।

मैं एक सुमन, मैं जहां रही,

जीवन भर उसको महकाया,

पर हाय! पुरुष, मैंने तुमसे,

उसके बदले में क्या पाया?

मैं ‘देवी’ कहलाकर, दबी रही,

और दबी रही सदियों यूं ही,

मैं प्राणयुक्त प्राणी होकर भी,

जीवन भर निष्प्राण रही।

स्त्री जीवन की विडंबना और त्रासदी का मर्म छूती ये पंक्तियां सामाजिक परिवर्तन का आह्वान करती हैं। ‘मैं एक लड़की हूं’ यह कहने में मुझे व मेरे परिवार को गर्व है। मेरा जन्म एक सभ्य, सुशिक्षित व व्यापक विचारधारा वाले परिवार में हुआ है, पर खेदजनक यह है कि सारी बेटियां इतनी भाग्यशाली नहीं। समाज में ऐसे परिवारों की बहुलता है, जहां पुरुष अपने अहं की पुष्टि के लिए नारियों को रौंदते हैं। उन्हें शिक्षा, सम्पत्ति व निर्णय के अधिकार और उत्तम स्वास्थ्य जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित रखते हैं। मुझे मेरे परिवार से स्नेह मिल रहा है। शिक्षा व विचार-सम्प्रेषण की स्वतंत्रता भी मुझे प्राप्त है, लेकिन मैंने महसूस किया है कि समाज में लोगों की नजरों में मैं ‘बेटी’ या ‘बहन’ नहीं होती हूं। उनकी नजरें सिर्फ उपहास या हेय भावना की परिचायक होती हैं। जब फब्तियां कसी जाती हैं, व्यंग्य का पात्र बनाया जाता है, तब मैं कमजोर नहीं पड़ती। कहते हैं ‘ईश्वर ने जिस मिट्टी से नारी को गढ़ा, उसमें नमी अधिक थी। अत: हमें त्याग, कोमलता, करुणा की प्रतिमूर्ति माना जाता है। अपमान, प्यार-तिरस्कार की भावनाएं समान रूप से मौजूद हैं। पुरुष तो हर युग में क्रमश: राम या रावण बनता रहा, पर नारियां हमेशा अग्नि-परीक्षा देती आयी हैं। आखिर यह सारी अपेक्षा हमसे ही क्यों? अगर हमारे साथ छेड़छाड़ सड़कों पर खुलेआम भी हो रहा है, तो समाज मूकदर्शक होता है, उपेक्षा हमारी ही होती है। हमने हमारी दादियों के मुंह से सुना है कि उनके जमाने में काफी पाबंदियां थीं। बहुत से बदलाव के बावजूद यह स्थिति आज भी मौजूद है। ईश्वर ने हमें कम नहीं, ज्यादा ही शक्ति दी है- हमारा मानसिक सम्बल हमें टूटने नहीं देता। इकबाल के शब्दों में, ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन, दौरे-जहां हमारा।’ समाज हमें ‘देवी’ कहकर न पूजे पर इंसान तो समझें। नारियां आज अंतरिक्ष से लेकर गृहस्थी तक की कमान समान मुस्तैदी से संभाल रही है। बात सुनीता विलियम्स या कल्पना चावला, इंदिरा गांधी या प्रतिभा पाटिल, इंदिरा नूयी या विदेशी एंजेला मार्केल पर ही खत्म नहीं होती, हमारा नमन उन सब औरतों को है, जो स्वयं को शक्तिशाली साबित कर रही हैं। वाकई मुझे उस दिन का इंतजार है, जब मैं भी जहां जाऊं, समान स्नेह व सम्मान पाऊं।

स्नेहा आशीष

एस.एम. कालेज भागलपुर

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