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मनुष्य जीवन के तीन स्तम्भ हैं – आचार, विचार और व्यवहार। इसी के साथ विवेक भी आ जाए तो जीवन में फिर आनंद ही आनंद है। आचार, विचार और व्यवहार में विचार का महत्त्व अधिक है। क्योंकि अन्य दो बातें आचार और व्यवहार इसी विचार पर निर्भर करता है। यदि सद्विचार होगा तो आध्यात्मिक एवं भौतिक उन्नति जीवन में होगी। यदि विचार कुत्सित हुआ तो आध्यात्मिक एवं भौतिक अवनति जीवन में होगी। विचार का अर्थ मनन होता है – मनन से हम चिंतन समझ सकते हैं। चिंतन का अर्थ चिंता के साथ सोचना है। गपशप का अर्थ चिंतन नहीं होता है। गपशप में केवल समय की बर्वादी होती है। विचार में हमेशा निरीक्षण की प्रवृत्ति रखनी होगी।
खान-पान, वस्त्र, पड़ोस आदि पर जीवन भर गंभीरतापूर्वक सूक्ष्म निरीक्षण करना पड़ेगा। यदि हम सूक्ष्म निरीक्षण उपरोक्त बातों पर नहीं करेंगे तो हम सामाजिक जीवन में पिछड़ जायेंगे। क्योंकि उपरोक्त वर्णित बातों में परिवर्तन हमेशा होता रहता है। कौन सा परिवर्तन उपयुक्त है या नहीं है उसका विचार हमें करना पड़ेगा। हमारे ऋषि – मुनियों , मनीषियों ने हमें हमेशा सद्विचार रूपी धरोहर दिया है। बुद्धि या ज्ञान का अर्थ – जानने की शक्ति है। लेकिन उस शक्ति में सही और गलत में जो विभेद करना सिखा दे – वही विवेक है। विवेक हमेशा शांति चाहता है और संतुष्ट रहना चाहता है, लेकिन हमेशा सत्य के साथ चलना चाहता है। बुद्धि से व्यक्ति कभी – कभी सही – गलत में भेद नहीं कर पाता है तथा विवेक के अभाव में गलत में पड़ जाता है। हंस में यह विवेक का गुण जन्म से ही आता है। दूध में यदि जल मिला दिया जाए तो हंस अपने विवेक से दूध पी लेता है तथा जल को छोड़ देता है। मनुष्य में यह बात नहीं होती है। अपने ज्ञान के आधार पर ही वह सही – गलत के बीच विभेद कर सकता है। महाभारत में हम महात्मा विदुर का उदाहरण ले सकते हैं। उनमे विवेक था।
हर बात पर उन्होंने महाराज धृतराष्ट्र को समझाया है कि दुर्योधन का विचार तथा आचरण सही नहीं है। उन्होंने दुर्योधन का साथ कभी नहीं दिया। आचरण में हम एक अच्छे रास्ते में मजबूती से चलना समझ सकते हैं – तभी एक निश्चित उद्देश्य की पूर्ति हो सकती है। यदि इन तीनों का मजबूती से ध्यान रखा जाए तो जीवन-पथ सरल हो जाता है। व्यक्तित्व का निर्माण आचरण से बहुत हद तक निर्भर करता है। जीवन में अधिकांश लोग काफी खिलखिलाकर हँसते हुए दिखाई देते हैं। उनका हंसना-हंसाना उनके आचरण से प्रेरित होता है। कुछ लोग हँसते ही नहीं है। यदि कोई हंस रहा होता है तो ऐसे आचरण वाले व्यक्ति को परेशानी हो जाती है। वह मन ही मन चिढने लगता है। दूसरों की हंसी उसे बर्दाश्त नहीं होती है। वह मन ही मन दुखी हो जाता है। उस व्यक्ति की भाव- भंगिमा एक निम्नस्तरीय व्यक्ति के समान हो जाती है। कुछ व्यक्ति हर वक्त हँसते रहते हैं। कभी – कभी खिलखिलाकर हंसना और हर वक्त – हर बात पर हंसना दोनों में फर्क है। यदि व्यक्ति हर वक्त हर बात में हँसता है तो ऐसे व्यक्ति से सावधान हो जाना है। ऐसा व्यक्ति खतरनाक हो सकता है।
कुंठित व्यक्ति, कहीं किसी गम से पीड़ित अथवा परिवार द्वारा परित्यक्त व्यक्ति ही अपने गम को भुलाने के लिए हर वक्त-हर बात में हँसते हुए दिखाई पड़ता है। मनुष्य के व्यक्त्तित्व से उसके आचरण , व्यवहार तथा विचार का पता चल सकता है – यदि थोड़ी बहुत सावधानी रखी जाए। केवल बोलने या चलने के ढंग से उसके व्यवहार तथा आचरण का पता नहीं चल सकता है। जैन मुनि तरुण सागर जी ने अपने एक प्रवचन में आचार – विचार के सम्बन्ध में कहा है कि “भूमि की उर्वरता का पता बोए गए बीज से लगता है और व्यक्ति के आचार, विचार, व्यवहार से उसकी कुलीनता का पता चलता है। आचार, विचार, व्यवहार के प्रति पवित्रता होनी चाहिए।
जिस कुल में जन्म लेते हैं , उस कुल की मर्यादा के अनुरूप आचार, विचार, व्यवहार करें। भीतर झांकें और देखें कि कुल की मर्यादाओं के प्रति कितने जागरूक हैं। आश्चर्य तो तब होता है व्यक्ति जिस कुल में जन्म लेता है, उसी की मर्यादाओं की धज्जियां उड़ाई जाती हैं। बुराइयां व्यक्तिगत एवं सामाजिक स्तर पर होती है, व्यक्तिगत बुराई चेतना की जागृति से जीती जा सकती है और सामाजिक बुराइयों के लिए समाज को संगठित होकर जीतनी होती है।” अंत में हम इतना कह सकते हैं कि आचरण – विचार एवं व्यवहार में एकरुपता होनी चाहिए।
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