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सहशिक्षा और समाज

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मेरी पढाई पहली कक्षा से लेकर स्नातकोत्तर तक सह शिक्षा-माध्यम से हुई। पहली कक्षा से लेकर पांचवीं कक्षा तक लडकियों के साथ बैठना होता था। उस वक्त तक मन में कोई बात नहीं आती थी। कक्षा में बैठने की व्यवस्था बदल गयी। अब बालक – बालिकाओं के लिए अलग – अलग बैठने की व्यवस्था थी। यह व्यवस्था स्नातकोत्तर स्तर तक जारी रही। अब सवाल उठता है कि इस प्रकार की व्यवस्था क्यों की जाती है? यदि साथ में ही बैठने की व्यवस्था होती तो क्या हो जाता? प्राचीन काल में स्त्री – पुरुषों में भेदभाव उतना नहीं था। समय के साथ यह व्यवस्था बदलती गयी। मैंने देखा है कि जिस विद्यालय में सह-शिक्षा की व्यवस्था नहीं होती है , उस विद्यालय के छात्र – छात्राओं का व्यवहार उतना सामाजिक स्तर पर नहीं पहुँच पाता है जितना पहुँचाना चाहिए। जिस विद्यालय में सह-शिक्षा की व्यवस्था होती है वहां अनुशासन सम्बन्धी परेशानी कम होती है। कारण सीधा है कि बच्चों में परिवार में किस प्रकार रहना है उसकी आदत पड़ जाती है। यदि हम परिवार को देखें तो पाएंगे कि परिवार के सभी सदस्य आपस में किसी न किसी रिश्ते में जुड़े होते हैं। उसी प्रकार समाज बनेगा-जिसमे सभी लोग आपस में जुड़े रहते हैं। आपस में सम्बन्ध जुड़ने से निकटता आती है। बिना सम्बन्ध के समाज उस सम्बन्ध को मान्यता नहीं देगा।

सह-शिक्षा का महत्त्व-जब लड़के-लड़कियों एक ही स्थान पर शिक्षा ग्रहण करते है तो इससे लड़कियों का नारी स्वभाव, सुलभ लज्जा, झिझक अबलापन व हीन भावना समाप्त हो जाती है । सह-शिक्षा सस्थाओं में उन्हें, खुले रूप से सामने आने का अवसर मिलता है ।

आज के समय समाज ही लिंग भेद में अंतर बना रहा है। जबकि सहशिक्षा दोनो का संम्पूर्ण विकास करता है। जिससे दोनों में हर क्षेत्र में काम करने की क्षमता बढ़ती है। सहशिक्षा के द्वारा ही छात्र नैतिक मुल्यों अपनाते हैं। एक दूसरे से आगे बढ़ने की प्रतिस्पर्धा की भावना आने से छात्र अपने जीवन में अधिक सफल रहते हैं। सहशिक्षा, लड़का हो या लड़की दोनों के सर्वांगीण विकास के लिए बहुत जरूरी है। मैंने कुछ समय के केवल लड़कों के विद्यालय में कार्य किया। वहां क्या पाया यदि कोई भी लड़की या महिला अपने बच्चे से मिलने भी आती थी तो छात्रावास के सभी बच्चे उस महिला या लड़की को देखने के लिए बाहर निकल जाते थे। उनमे एक अजीब आकर्षण का भाव दिखाई देता था। उसी प्रकार कुछ समय मैंने केवल लड़िकयों के विद्यालय में कार्य किया। वहां की स्थिति भी कमोवेश पहले जैसी ही थी। कुछ समय सहशिक्षा वाले विद्यालय में कार्य किया तो वहां की स्थिति सामान्य थी। लड़के – लडकियों में कोई भेदभाव नहीं था। साथ ही साथ लड़के – लडकियों में प्रतिस्पर्धा का भाव भी देखने को मिला। विद्यालय में कुछ भी प्रतियोगिता या कार्यक्रम हो तो बालक – बालिकाएं दोनों मिलकर काफी सुन्दर से उसे पूरा करते थे। स्वस्थ प्रतिस्पर्धा हमेशा देखने को मिलता था। बच्चों के पोशाक या वस्त्र सम्बन्धी समस्याओं को मैंने कभी नहीं देखा। बालक हों या बालिका – पोशाक एकदम सलीके से पहन कर आते थे। जबकि जिस विद्यालय में सहशिक्षा की व्यवस्था नहीं थी वहां इन सारी बातों की कमी देखने को मिलती थी। वहां के प्राचार्य या प्रभारी हमेशा बालक या बालिकाओं को ठीक से कपडा पहनना है – इसी पर व्याख्यान देते रहते थे।  सहशिक्षा का एक अन्य लाभ यह भी है कि एक ही परिवार की छात्र – छात्राएँ यदि एक ही विद्‌यालय में शिक्षा पाते हैं तो अभिभावकों को कम परेशानी उठानी पड़ती है। बच्चों लाने – छोड़ने का खर्च बच जाता है। ‘अभिभावक दिवस’  में माँ – पिताजी को अधिक परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता है।

कुछ लोग सहशिक्षा के विरोध में भी बोलते हैं। कमी तो हर प्रकार की व्यवस्था में होती है। धार्मिक नेता या परम्परावादी इस व्यवस्था के विरोध में हमेशा बोलते हैं। समाज में हम जो भी व्यवस्था अपनाएं – कुछ न कुछ खामियां तो उसमे रह ही जाएँगी। उसे हम दूर नहीं कर सकते। उसकी रोकथाम हम कर सकते हैं। उन्हें एकांत में नहीं छोड़ देना है। हर समय वे किसी न किसी कार्य में लगे रहें , ऐसी व्यवस्था करनी है। जरूरत इसी बात को लेकर है। लड़के – लडकियाँ बिगड़ जायेंगे। हमेशा अभिभावक के मन में यह डर बना रहता है। यदि समुचित ध्यान दिया जाए तथा ठीक से प्रशिक्षण दिया जाए तो सहशिक्षा वरदान बन कर सामने आएगी। छात्र – छात्राओं का व्यवहार एकदम सामान्य रहता है। हमलोग २१ वीं सदी में जी रहे हैं। यहाँ लड़के – लडकियों सब को खुलकर जीने का हक़ है। वह जमाना चला गया जब लडकियाँ घर में ही रहती थी। अब तो अन्तरिक्ष की सैर भी कर आ चुकी हैं। सभी बिना किसी भेदभाव के एक छत के नीचे एक समान शिक्षा, एक समान पाठ्यक्रम पढ़ें।  अत: ऐसे बदलते परिवेश में सहशिक्षा को बढ़ावा देना समाज तथा देश दोनों के हित में है।

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