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शिक्षा

www.jagran.com/blogs/Naye Vichar
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जीवन में शान्ति के साथ जीने के लिए जरुरी है कि बिना मांगे किसी को सलाह न दें। बिना मांगे सलाह देने से कभी-कभी लेने के देने पड़ सकते हैं। एक दिन मेरा एक मित्र अपने कार्यालय में एक सहकर्मी से उलझ गया। बात एकदम सरल थी। मित्र के सहकर्मी को रेल से शयनयान के बदले वातानुकूलित यान से सफ़र करना था। शयनयान श्रेणी में आरक्षण की उपलब्धता नहीं थी। मित्र के सहकर्मी ने अपने अधिकारी को इस बात की सूचना दी कि अमुक ट्रेन में शयनयान में शायिका उपलब्ध नहीं है। अधिकारी कुछ कहते या बोलते उसके पहले ही मेरे मित्र ने उन्हें दूसरे स्टेशन से किसी अन्य ट्रेन में शायिका उपलब्ध होने की जानकारी दी। मेरे मित्र को सहकर्मी को यह बात नागवार गुजरी। दोनों के बीच सम्बन्ध जरा सी बात के लिए खराब हो गया।

एक अन्य घटना में मित्र के कार्यालय में एक लड़की कुछ काम कर रही थी और मेरे मित्र ने उसे बोल दिया कि ठीक से काम करना कही गलत ना हो जाये और उसने मेरे मित्र को  जवाब दिया की उसे काम करना है और मित्र से कुछ नहीं सीखना । मित्र को उस लड़की ने कहा कि आप अपने काम से मतलब रखो और उसे उसका काम आता है। इस बात पर मेरे मित्र का मुंह उतर गया। चेहरा देखने लायक था। मित्र तो वहां से चला आया लेकिन संबंधो में कड़वाहट आ गयी।

हमारे विद्यालय में श्री गौतम की गिनती अपने विद्यालय  के तेजतर्रार और होनहार  शिक्षक के रूप में होती है। प्राचार्य भी उस के काम से खुश रहते हैं, लेकिन बिना पूछे बातबात में अपनी राय देने की उस की आदत से सब परेशान हैं। जहां विद्यालय  के चार लोग बैठ कर बात कर रहे हों वहीं पहुंच कर वह अपने विचार सब पर थोपने लगते हैं। प्राचार्य  के साथ बैठक होती है, तब भी सब से ज्यादा आवाज श्री गौतम  की ही सभा-कक्ष में गूंजती है। मानो बैठक में मौजूद दूसरे लोगों के कोई विचार या अनुभव ही न हों या फिर उन्हें कुछ आता जाता ही न हो। इस बात से तेजतर्रार और होनहार  शिक्षक होने बाद भी श्री गौतम से सारे अध्यापक परेशान रहते हैं। जबकि श्री गौतम काफी सहृदय अध्यापक हैं। हर वक्त – हर समय सभी की मदद के लिए तत्पर रहते हैं।

उपरोक्त घटनाओ को ध्यान से देखने से पता चलता है कि संबंधो में कड़वाहट का मुख्य कारण बिना मांगे सलाह देना है। इस स्थिति से बचा जा सकता था। थोड़ी सी सावधानी रखने की आवश्यकता थी। बिना मांगे सलाह देकर व्यक्ति बिना  हरकत से तनाव मोल लेता है। बार-बार सलाह देते रहने से मनुष्य का मान-सम्मान भी कम होने लगता है और सभी उससे दूरी बनाने लगते हैं। जरूरत के हिसाब से बोलना तथा मांगने से सलाह देना ही उचित है।

माना कि अधिकारी का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने के लिए उन्हें अपनी प्रतिभा और बुद्धिमानी से परिचित कराना जरूरी है, लेकिन इस के लिए पहले उन की बात सुनना और परिस्थितियों को उन के नजरिए से देखना व समझना भी जरूरी है। परिस्थितियों को दूसरे के नजरिए से न देख कर सिर्फ अपने ही विचार हर जगह थोपना असफलता का सबब ही  बन जाता है।

आजकल बहुमुखी प्रतिभा की पूछ हर जगह होती है। जो व्यक्ति बहुमुखी प्रतिभा के धनी होते हैं , वे सफल हो जाते हैं। उनका व्यक्तित्व हर वातावरण के अनुसार ढल जाता है। लेकिन जरुरी नहीं कि सभी व्यक्ति सफल हों। किसी की नक़ल करते समय यदि हम एक वक्त में कई कार्य आरम्भ कर देंगे तो हो सकता है कि एक भी कार्य हम सभी ढंग से नहीं कर सकें। इससे उत्पादकता प्रभावित होती है। उससे अच्छा है कि हम अपने को किसी एक कार्य को करने में ही दक्ष कर लें या किसी एक कार्य में निपुणता हासिल कर लें। बहु-कार्यन दृष्टिकोण में असफल होने की संभावना बढ़ जाती है। मेरे एक मित्र ने एक साथ कई जिम्मेदारी संभाल ली थी। कई कार्यों को एक साथ प्रदर्शन-प्रभाव में पड़कर करना शुरू कर दिया। उस मित्र की बाद में जो दुर्गति हुई वह वर्णन के लायक भी नहीं है। उनके अधीनस्थ भी उनसे कन्नी काटने लगे। उनके ऊपर बहुत से आरोप लगा दिए गए और एक बेगुनाह तथा निर्दोष को अनर्गल आरोपों में फंसा दिया गया। इसीलिए जीवन में यदि शांति के साथ जीना है तो बहु-कार्यन पद्धति से कार्य नहीं करना है। एक ही कार्य निपुणता के साथ करना है तथा सहकर्मियों के बीच में उसका प्रचार – प्रसार करना है। उस कार्य को इतना बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत करने की कला भी आनी चाहिए ताकि सामने वाले को लगे कि असाधारण कार्य हुआ है।

कभी-कभी यदि कार्यालय में हम किसी कार्य का सरलीकरण कर देते हैं तो भी मुसीबत या संकट में फंस सकते हैं। हर कार्यालय या प्रतिष्ठान का अपना एक कार्य करने का तरीका होता है। यदि उस तरीके में हम अपना विचार या दिमाग लगा दिए तो हो सकता है कि पहले से स्थापित पद्धति से कार्य करने वालों को बुरा लग सकता है। ऐसी स्थिति से बचने का तरीका यही है कि जैसे चल रहा है – उसी प्रकार चलते रहना चाहिए। नदी में धारा के विपरीत चलने में बहुत मेहनत की आवश्यकता पड़ती है। धारा के साथ तैरने में अधिक श्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती है। तो हर कार्यालय या प्रतिष्ठान में पहले से स्थापित पद्धति से ही कार्य करना उचित है। जब तक अधिकारी न कहें उस पद्धति को बदलने की जरूरत नहीं है। अंत में हम इतना ही कह सकते हैं कि ये उपरोक्त बातें देखने – सुनने में तो छोटी हैं लेकिन रोजमर्रा की जिन्दगी इन बातों का अपना एक अलग महत्त्व है। यदि इन बातों पर ध्यान दिया जाए तो अनावश्यक तकलीफों से बचा जा सकता है।

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