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एक बार अपने एक मित्र के यहाँ जाना हुआ। मित्र को २ बच्चे थे। चाय-नाश्ता करते – करते देखा कि मित्र की पत्नी ने अपने दोनों बच्चों को तीन-तीन दफे पिटाई कर दी। मित्र ने भी कहा कि बच्चे आजकल के बिगड़ गए हैं। विद्यालय में शिक्षक ध्यान नहीं देते हैं। शिक्षकों को ध्यान देना चाहिए।
एक बार विद्यालय में शिक्षक-अभिभावक बैठक चल रही थी। एक भद्र महिला की शिकायत थी कि उनकी बिटिया रात में यूट्यूब देखती है। शिक्षक कम से कम देखने से मना कर सकता है। शिक्षक की बात बच्चे सुनेंगे। उसी बैठक में एक अन्य महिला ने अपने बच्चे द्वारा मोबाइल गेम खेलने की शिकायत की। साथ ही कहा कि उनका बच्चा उनकी बात नहीं सुनता है। शिक्षकों को समझाना चाहिए या शिक्षकों को बच्चों को डराना चाहिए।
ध्यान से देखने से पता चलता है कि अभिभावक की अपेक्षा शिक्षक समुदाय से कुछ ज्यादा ही हो गयी है। एक परिवार में माँ-पिताजी मिलाकर दो बच्चों को नहीं संभाल सकते हैं। दो एक शिक्षक विद्यालय में कम से कम ५ कक्षाओं के बच्चों को कैसे संभालेगा? यह कोई भी सोचने को तैयार नहीं है। बच्चा विद्यालय में पांच से छह घंटे ही बिताता है। शेष समय वह अपने माँ-पिताजी के साथ ही रहता है। सभी बच्चों की रूचि तथा बुद्धि क्षमता भी अलग-अलग है। माँ-पिताजी टीवी देखने तथा मोबाइल फोन में व्यस्त रहते हैं तथा बच्चों को केवल एक बात कहेंगे कि जाकर पढाई करो। कभी बच्चों के साथ बैठकर उसकी जरूरतों के सम्बन्ध में जानकारी नहीं लेंगे तथा दोषारोपण शिक्षकों के उपर करेंगे। अभी कानून भी शिक्षकों का साथ नहीं देता है। यदि शिक्षक जरा-सा भी बच्चों को डांट दे या पीट दे तो कयामत आ जायेगी। अभिभावक पुलिस में जाकर शिकायत कर देंगे और हो सकता है कि कुछ पत्रकार या कैमरामैन को बुला लिया जाए। इसके बाद वह खबर दिन भर टीवी पर चलते रहेगी और समाचार पत्रों में सप्ताह भर छपते रहेगी। इसीलिए मारना तो दूर बच्चों को कुछ कह पाना भी अभी अपराध की श्रेणी में आ गया है। हमारे समय में यदि विद्यालय में पिटाई होती थी तो डर से घर में किसी को नहीं बताते थे क्योंकि घर में भी पिटाई होगी।
बोर्ड की परीक्षाओं में यदि परीक्षाफल खराब आ गया तो फिर उस पूरे विद्यालय की फजीहत ही होती है। यदि कुछ विद्यार्थी ने अनुचित कदम उठा लिए तो फिर ईश्वर ही बचा सकता है। गला-काट प्रतिस्पर्धा के कारण अभिभावक की अपेक्षा परीक्षाफल पर केन्द्रित होती है। किस अभिभावक के बच्चे ने कितना प्रतिशत अंक हासिल किया? सारी चर्चाएँ इसी पर आकर केन्द्रित हो जाती है। जबकि अभिभावक को बच्चों से परीक्षाफल को ज्यादा संजीदगी से नहीं लेने की सलाह देनी चाहिए। परीक्षा का परिणाम तो केवल संख्याओं का खेल है। जिदगी में और भी बहुत से अवसर अपनी योग्यता को सिद्ध करने के मिलेंगे।
शिक्षकों की भी निजी जिदगी है। उनकी भी कुछ सीमाएं हैं। कुछ भावनाएं हैं। लेकिन यह सोचने वाला कोई नहीं है। समाज में जहाँ कहीं जाते हैं तो सुनने को मिलता है कि आजकल के शिक्षकों को बहुत आराम है। शिक्षक केवल वेतन लेने के लिए थोड़े ही होता है। केवल पढने-पढ़ाने का कार्य अध्यापक नहीं करते हैं। उनका कार्य बच्चों में नैतिक गुणों, सामाजिक मूल्यों को भरने का भी है। शिक्षक राष्ट्र-निर्माता है। मानवीय मूल्यों का आदान-प्रदान बच्चों में शिक्षकों के कारण ही आ पाता है। कितने अभिभावक को मैंने सरकारी कार्यालयों में जैसे बैंक, डाकघर, बिजली विभाग आदि में अपने कार्य को कराने के लिए जी हजूरी करते हुए देखा है। मगर वही अभिभावक शिक्षक यदि एक गलती कर दे तो सहने या बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं होता है। कभी-कभी तो हद तब हो जाती है जब कुछ अभिभावक अपने बच्चों की शिकायत सात से आठ महीने के बाद लाते हैं और कहते हैं कि उस अमुक अध्यापक ने इसे उस वक्त डांट लगायी थी इसीलिए अब इस बच्चे को पढने में मन नहीं लगता है। अब इस तरह की स्थिति को एक असहाय शिक्षक क्या करे? शिक्षकों में असीमित धैर्य ईश्वर द्वारा ही प्रदान किया गया है। यदि बच्चे किसी बात को तीन से चार बार यदि अपने माँ-पिताजी से पूछते हैं तो क्या हाल माँ-पिताजी का होता है – यह कहने या लिखने की बात नहीं है। लेकिन कक्षा में यदि बालक कह दे कि गुरूजी समझ में नहीं आया तो कोई भी शिक्षक गुस्सा नहीं होता है तथा पुनः पढ़ाने के लिए तैयार हो जाता है। एक कर्तव्यनिष्ठ शिक्षक अपने पाठ को पढ़ाने के लिए दिन-रात तैयारी करता है। इसके बाद कक्षा में ३० मिनट में उसे चालीस बच्चों को एक साथ समझाना होता है। उसके बाद ही एक शिक्षक को जाकर संतुष्टि होती है। कोई भी शिक्षक बच्चों के मूर्खतापूर्ण प्रश्नों, व्यंग्य-बाणों, कटाक्षों पर गुस्सा नहीं होता है बल्कि प्यार और दया ही दिखाता है।
ऐसा नहीं है कि सारे अभिभावक ही ऐसा करते हैं। ये बातें अधिकांश अभिभावकों के सम्बन्ध में है। अभी हाल ही में एक अभिभावक ने मुझे फोन करके उनके बच्चे का चयन भारतीय प्रशासनिक सेवा में होने की सूचना दी। चयन होने के लिए वे अभिभावक विद्यालय तथा शिक्षक समूह को बधाई दे रहे थे। अभिभावक काफी प्रसन्न थे। उनके स्वर नहीं निकल रहे थे- ‘यह सब आप सभी के मार्गदर्शन तथा आशीर्वाद से ही संभव हो पाया।’ उनकी ख़ुशी का वर्णन करने के लिए मेरे पास शब्द नहीं है। हम सभी शिक्षकों का सीना भी गर्व से चौड़ा हो गया। तो केवल मैं नकारात्मक पक्ष को ही दिखा रहा हूँ , ऐसा भी नहीं है। सकारात्मक पक्ष भी है। सारे अभिभावक ही गलत हैं या सारे शिक्षक ही गलत हैं – इस प्रकार की स्थितियों से बचना चाहिए। लेख लिखने का कारण यह है कि अभिभावक तथा माँ-पिताजी अपने बच्चों की सीमाओं को समझते हुए हम जैसे अध्यापकों से सहयोग का भाव रखें। शिक्षकों को अध्ययन-अध्यापन करने में मदद करें। घर में बच्चों को ध्यान से देखें। सारा दोष शिक्षकों के ऊपर देने के बदले कुछ दोष अपने ऊपर भी लेने का प्रयास करें।
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