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मैं कुछ भूल रहा हूँ
यादों की तटिनी पर
याद करने की कोशिश करता हूँ,
क्या–क्या भूले?
त्याग, सेवा और आत्मबोध को भूले
मगर विस्मृत हुआ कैसे
हरदिन तो सुबह-शाम संवाद करते हैं.
वार्तालाप तो ‘तोते’ की तरह करते हैं
जीभ के व्यायाम के लिए
जीवन में अपनाने को नहीं
केवल दिखलाने के लिए
दूसरों को सुनाने के लिए
जिससे अन्य के मन से ढह जाएं
संदेह के बादल
और लगे हम कितने भाग्यशाली हैं
जिसे हम अपना सर्वस्व देते हैं
वही एक दिन ठगते हैं
मनुष्य के वेश में भेड़िया निकलते हैं
चलती हुई लाश बन कर रहते हैं
जिसे मानवता का पर्याय समझते हैं
वे कुछ और निकलते हैं
तटिनी के किनारे पर
अपने दूर होते जा रहे हैं
जिनके लिए हमने सब को छोड़ा
आज पहचानने से मुकरते हैं
कुछ दूर से लोग आते हैं
उनको पहचानने का
प्रयत्न करता हूंं
मगर फिर याद आता है
यह संसार है
यहांं कोई किसी का नहीं
गुरु शिष्य का नहीं,
पितामह प्रपौत्र का नहीं
भाई भाई का नहीं
तो किसी से आशा रखना
ही व्यर्थ है
अब शायद कुछ याद आए
जिन्दगी के सुहाने पल
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