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एक बार गरुड़ जी किसी काम से कैलाश पर्वत पर भगवान विष्णु से मिलने गए। जैसा कि हम सभी जानते हैं कि स्वभाव से गरुड़जी की दुश्मनी साँपों से है। लेकिन कैलाश पर्वत पर भगवान शिव के सामने उन्होंने पाया कि बहुत सारे सांप उनके बदन में लिपटे हुए हैं। आपादमस्तक भगवान शिव सांपो से लिपटे हुए थे। यहाँ पर गरुड़जी को देखकर सांपो ने फुफकारना शुरू कर दिया। अब गरुडजी कुछ नहीं कर सकते थे – लाचार हो गए। वे मन ही मन सोच रहे थे कि जैसे ही सांप भगवान शिव के शरीर से हटेंगे तो वे उन दुष्ट साँपों को मार देंगे। लेकिन यहाँ पर तो सर्प भगवान शिव के साथ सत्संगति में बैठे थे। अब कोई उन दुष्टों का कुछ नहीं बिगाड़ सकता था। इसीलिए जो सफलता के शिखर पर बैठ गया या पहुँच गया उन लोगों के लिए भी अच्छी संगति का होना बहुत जरुरी है। यदि सफल इन्सान गलत संगति में पड़ जाएगा तो निश्चित रूप से उसकी अवनति होगी। क्योंकि वह सफल इंसान योग को छोड़कर भोग में पड़ जाएगा और पतन निश्चित है। अतः संगति बहुत ही जरुरी है जो कि सफल व्यक्ति को शिखर पर बने रहने में मदद करे।
चाणक्य के बारे में हम सभी जानते हैं – वे राजा नहीं बने लेकिन राजा बनाने में उनकी भूमिका काफी सक्रिय रही। उन्होंने अपनी संगति में चन्द्रगुप्त मौर्य को राजा बना दिया। चाणक्य को किसी बात की इच्छा नहीं थी – चन्द्रगुप्त महत्त्वाकांक्षा रखने वाला बालक था। दोनों की संगति हुई और बात बन गयी। दुर्योधन की संगति कर्ण तथा शकुनी के साथ हो गयी। फल हमारे सामने है। शकुनी ने अपने कुटिल बुद्धि से पूरे कौरवों का नाश करवा दिया। पांडवों की संगति भगवान श्रीकृष्ण के साथ थी तो उन्हें विजयश्री मिली। रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी लिखते हैं:
सठ सुधरहिं सत्संगति पाई। पारस परस कुधात सुहाई।।
बिधि बस सुजन कुसंगत परहीं। फनि मनि सम निज गुण अनुसरहीं।।
दुष्ट संग पाकर सुधर जाते हैं – जैसे लोहा पारस के संग स्वर्ण में परिवर्तित हो जाता है। परन्तु कभी सज्जन लोग दैव संयोग से कुसंग में पड़ जाते हैं तो भी वे अपने अच्छे गुणों का अनुसरण करते हैं। हमारी आध्यात्मिक उन्नति इस बात पर बहुत निर्भर है कि हमारी संगति कैसी है? यह कहावत है कि इंसान अपनी संगति से जाना जाता है। यदि हम अमीर लोगों के साथ उठते – बैठते हैं तो हम हमेशा धन – दौलत के बारे में सोचते रहेंगे। यदि हमारा संग – साथ शराबियों के साथ है तो हमारा रुझान उधर ही होगा। एक अध्ययन से यह पाया गया कि बच्चों में संगति का असर बहुत जल्दी पड़ जाता है। किशोरावस्था तक आते – आते वह किस दुनिया में खो जाता है – पता ही नहीं चलता। कितने बच्चों को मैंने बाल्यकाल में कुशाग्र बुद्धि का देखा है। उसी बच्चे को जब किशोरावस्था में देखते हैं और सुनते हैं तो बहुत कष्ट होता है। बच्चा पूर्णरुपेण बदल चुका होता है। बच्चों में व्यवहार में परिवर्तन का मूल कारण यहाँ संगति ही है। यदि बच्चा बैंड बजानेवाले के पास रह रहा है तो वह बैंड बजाना जल्दी सीख जाएगा। यदि वह खिलाडी के पास रह रहा है तो खेलना जल्दी सीख जाएगा। उसकी पूरी गतिविधि संगति के ऊपर ही निर्भर करेगी। अभी तक कितना भी हमारा पतन हो गया हो फिर भी यदि हम सत्संगति करेंगे तो उत्थान की गुंजाइश है। अंगुलिमाल डाकू, रत्नाकर डाकू सत्संगति का असर पाकर इतिहास में अमर हो गए। ज्ञान की प्राप्ति के मुख्यतः दो मार्ग हैं – स्वाध्याय और सत्संगति। स्वाध्याय के लिए मह्त्त्वपूर्ण सत्साहित्य है। कयोंकि अच्छी पुस्तकें प्रत्येक स्थान और काल में सहायक होती है। तो सत्साहित्य की संगति में ही रहने का संकल्प क्यों न ले लिया जाए। बहुत सारे मित्र कहते हैं कि अभी जिन्दगी का मजा ले लिया जाए – एक जीवन मिला है। कल को क्या पता कल हो या न हो? तो बुढ़ापे का इन्तजार हमलोग सत्संगति के लिए न करें। बुद्धि जीर्ण-शीर्ण हो जायेगी तब उसमे ब्रह्म-विचार का रस भरने की कोशिश करेंगे? वे मनुष्य बड़े भाग्यशाली हैं जो कुसंगति से बचे हैं और सत्संगति से लाभ उठाते हैं। अच्छे मित्रों का साथ बुद्धि की जड़ता को हर लेता है, वाणी में सत्य का संचार करता है, मान और उन्नति को बढाता है और पाप से मुक्त करता है। चित्त को प्रसन्न करता है और हमारी ख्याति का सभी दिशाओं में प्रसार करता है। अब हम सोचें कि सत्संगति मनुष्यों का कौन सा भला नहीं करती। अंत में गोस्वामी तुलसीदासजी को ही याद कर लेते हैं:
मज्जन फल पेखिअ ततकाला। काक होहिं पिक बकउ मराला॥
सुनि आचरज करै जनि कोई। सतसंगति महिमा नहिं गोई॥
संत समाज रूपी प्रयाग-फल तत्काल दिखाई देता है, जिसमें स्नान करके कौए, कोयल और बगुले हंस बन जाते हैं। यह सुनकर यदि कोई आश्चर्य करता है तो उसने अभी सत्संग की महिमा को जाना ही नहीं।
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