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शिक्षकों का नामकरण

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कक्षा दसवीं में पाठ्यक्रम – बी में एक पाठ ‘सपनों के-से दिन’ पढाई जाती है। जो गुरुदयाल सिंहजी द्वारा लिखी गयी है। इसमें बाल सुलभ नैतिकता का पाठ काफी सुंदर से बताया गया है। पाठ एक संस्मरण है। लेखक अपने स्कूल के दिनों को याद करते हैं । लेखक बहुत संपन्न परिवार से न थे । वे ऐसे गाँव से थे जहाँ कुछ ही लड़के पढाई में रूचि रखते थे । कई बच्चे स्कूल कभी जाते ही नहीं या बीच में ही पढ़ाई छोड़ देते थे। बच्चों के बाल-सुलभ शरारतों को लेखक ने काफी रोचक अंदाज में प्रस्तुत किया है। पाठ पढ़ते – पढ़ाते समय मुझे भी अपना बचपन याद आ गया तथा सोचा क्यों न अपने विद्यालय के जीवन को स्मरण किया जाए।

इस सोच कर मेरे चेहरे पर मुस्कान आ गयी।  क्योकि इस नेक काम मे , मैं बहुत आगे रहता था।  हर समय मेरे मन मे खुराफात चलती रहती थी लेकिन शक्ल से बहुत सीधा था। मैंने अपनी कक्षा पांचवी  से लेकर दसवीं तक की पढाई शारदा पाठशाला कहलगांव, भागलपुर से की हैं जो कि एक अनावासीय विद्यालय है।

शुभारम्भ हम प्रधानाचार्य से करते है हमने उनका नाम ‘वाइट एंड वाइट’  रखा था क्योंकि उनके कपडे एकदम सफ़ेद थे। मजे की बात यह थी कि इस बात का उन्हें भी पता था। जैसे ही वे  दोपहर के समय हमारे कक्षा में आते और हमारी जब हमारी दोपहर की कक्षा का समय होता तो हमलोग सो रहे होते तो कुछ बच्चे उन्हें देख लेते थे तो साथी चिल्लाते, “ भागो भागो! ‘वाइट एंड वाइट’ आ रहे है डंडा लेकर और फिर चूहा बिल्ली का खेल शुरू हो जाता था। भागने-भगाने के क्रम में भी हमारे प्राचार्य अपने वस्त्र का बहुत ध्यान रखते थे और क्या मजाल कि उनके कपडे ख़राब हो जाएं। स्वच्छता में तो वे मुझे लगता है कि हमारे वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद मोदीजी को भी पीछे छोड़ते थे। देखने में भी वे एकदम सफ़ेद और ऊपर से सफ़ेद वस्त्र उनकी सुन्दरता में चार-चाँद लगा देता था।

अब आते हैं समाज  विज्ञान के अध्यापक पर उनका नाम हमने ‘ लाफाटा’ रखा  था।  क्योंकि वे ज्यादा बोलने वाले छात्र को सीधे लाफाटा लगा देते थे। उनको जरा-सा भी डर नहीं लगता था। किसी से वे नहीं डरते थे लेकिन छात्रों को बेहद प्यार करते थे।

अब आते हैं भौतिक विज्ञान के अध्यापक पर। वे बहुत आलसी आदमी थे इनसे अगर हम प्रश्न पूछने जाते तो वे  प्रश्न बताते-बताते सो जाया करते थे इसलिए हमने इनका नाम ‘निंदू सम्राट’ रखा था। पढ़ाने का तरीका उनका बहुत ही सरल था। बच्चों पढो – समझ में आया? यदि हमलोग ‘नहीं’ बोलते तो कहते फिर से पढो। पढ़ना अपने से ही होता था और यह क्रम तबतक चलते रहता जब तक हमलोग थक हार कर ‘समझ गए’ नहीं बोल देते थे।

अब आते हैं अंग्रेजी की अध्यापिका पर इनका नाम हमने ऑटोमेशन मैम’  रखा था। क्योंकि वे स्वचालित अंदाज में ही चला करती थी बिल्कुल सीधे ना इधर देखती थी ना उधर देखती थी । ऐसा प्रतीत होता था कि अपने कमरे से चाबी भरकर आई हैं कक्षा तक आने के लिए। लेकिन बच्चों के लिए उनके दिल में बहुत प्यार था। अपने वेतन से छुपकर वे बच्चों के विद्यालय के शुल्क को जमा करती थी और वह भी छुपकर।

अब आते हैं क्रीडा अध्यापक के पास इनका नाम हमने ‘सीबीआई ऑफिसर’ रखा था क्योंकि ये ।  छानबीन पर ज्यादा ध्यान देते थे विद्यालय में अगर कोई बात हो जाती तो यह बिल्कुल सीबीआई ऑफिसर की तरह जांच पड़ताल करते और अपराधी को पकड़ कर ही लाते। उनकी पारखी नजर से बचना-बचाना बहुत ही दुरूह कार्य था। यदि कोई छात्र कुछ भी अनैतिक कार्यो को करता तो सबसे पहले विद्यालय में यह खबर क्रीडा-अध्यापक के पास पहुँच जाती। विद्यालय में उनके मुखबिर भरे पड़े थे। किस जादू से वे अपराधी को धर दबोचते थे यह आज तक राज है। मैं आजतक उनके इस राज को नहीं जान पाया। आज के समय में बच्चे राज खोलते ही नहीं हैं। चाहे हम कितनी भी सख्ती कर लें। मगर हमारे क्रीडा-शिक्षक की बात ही निराली थी।

अब आते हैं संगीत अध्यापिका के पास इनका नाम हमने ‘रानी विक्टोरिया’ रखा था!! उनका रूप-रंग भी रानी की ही तरह था। वस्त्र –सज्जा एवं रूप सज्जा पर ज्यादा ध्यान देती थीं। उनके रूप-रंग को देखकर छात्र भी दंग रह जाते थे। मगर वे अपनी कक्षा में सबको प्रवेश नहीं देती थी। जो उनके जाँच में सफल होगा उसी को वे संगीत की शिक्षा देती थी। मुझे उनसे संगीत सीखने का अवसर प्राप्त नहीं हुआ। यह मलाल आज तक है।

उपप्राचार्य का नाम हम छात्रों ने दम्मा बाबू रखा था। उनको दमे की शिकायत थी। वे हमेशा बीमार रहा करते थे। उनका आना छात्रों को बहुत ही भाता था। हम बहुत से छात्र उनके सफरी एजेंट की तरह कार्य करते थे। पानी लाना, उनकी बछिया को खोज निकालना, उनके घर के लिए सब्जी खरीद कर लाना हम छात्रों को काफी अच्छा लगता था। घर पर सामान लेकर जाने से कुछ सुंदर खाने-पीने को भी मिल जाता था। हमलोग विद्यालय में आगे बढ़कर उनसे पूछ लेते थे कि सर घर में कुछ काम है क्या?

और यदि अपने संस्कृत अध्यापक की बात नहीं करूँ तो कथा अधूरी रह जायेगी। उनको हमलोग ‘पंडित सर’ ही कहते थे। सरस्वती पूजन के बाद उन्होंने सामान को समेटने की जिम्मेदारी मुझे दे दी। मैंने जानबूझकर या गलती से जो भी कहें थैले में नारियल की जगह एक आधा ईंट रख दिया। थैला भारी भी हो गया। पंडित सर काफी प्रसन्नता से थैला लेकर अपने घर गए। अगले दिन क्या हुआ होगा इसकी कल्पना आप कर सकते हैं। उस घटना को याद करने से आज भी मेरे शरीर में दर्द होने लगता है। जो कुटाई या धुनाई हुई उसकी याद काफी भयावह है। वह नारियल काफी मंहगा पड़ गया। हालाँकि नारियल मैंने अकेले नहीं खाया था बल्कि मित्रों के साथ ईमानदारी से बाँटकर खाया था। लेकिन धुनाई के वक्त एक भी मित्र सामने में नहीं आया।

जो भी हो विद्यालय में बिताए गए दिन आज भी याद आते हैं। यदि कोई छात्र गलती करते हुए पकड़ा जाता है और मेरे सामने लाया जाता है तो मैं अपने दिनों को याद करते हुए माफ़ करने में ही विश्वास रखता हूँ। मैं समझ जाता हूँ कि ये दिन शरारत करने के ही हैं।

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