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परिवार का अर्थ

www.jagran.com/blogs/Naye Vichar
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परिवार के लिए सबसे पहले सर्वशक्तिमान मालिक का आभार व्यक्त करना चाहिए क्योंकि उनके कृपा दृष्टि से ही परिवार बन पाता है या चल पाता है। दुनिया में व्यक्ति की पहचान परिवार से ही बनती है। सामान्य अर्थ में परिवार से हमारा तात्पर्य कुटुम्ब, कुल, खानदान, कुनबा आदि से है। कुटुम्ब शब्द की व्यापकता बहुत बड़ी है। वसुधैव कुटुम्बकम की भावना विश्व को एक परिवार के रूप में प्रकट करता है जो कि हमारी संस्कृति में तो पूरी तरह प्राचीन काल से ही चली आ रही है। पूरी धरती को ही कुटुम्ब कहा गया है। यानि संसार ही हमारा परिवार है। परिवार को बुद्धि से चलाना पड़ता है। अभी खानदान कहने से खून के रिश्तों का विश्वास उठने लगा है। अभी बड़े-बूढों को अपनेपन का अहसास नहीं मिलता है। समाज में एक-दो पुत्र ही ऐसे हैं जो परिवार में माता-पिता का ऋण उतारने के लिए तैयार हैं। नहीं तो आज के समय में प्रायः हर परिवार या घर में बुजुर्गों की निगाहें अपनों को खोजती रहती हैं। वृद्धाश्रम की कल्पना इस परिवार के विघटन के फलस्वरूप पैदा हुई होगी। परिवार में सदस्यों को मधुमक्खियों की तरह रहने के लिए सीखना होगा। अब परिवार समाज के रूप में हो, राज्य के रूप में हो या देश के रूप में हो – रहना मधुमक्खी की तरह ही है। आज के समय में बहू-बेटा-बच्चा सभी अलग रहते हैं। दादा-दादी , नाना-नानी तो केवल किस्से – कहानियों में ही सिमटकर रह गए हैं।

 

 

अब संयुक्त परिवार वाला परिवार लगता है कि हमारे देश से लापता हो गया है। पहले मुझे अच्छी तरह याद है कि पारिवारिक समूह की तस्वीर खिचाने के लिए कैमरा छोटा पड़ जाता था अब तो ‘खुद्खेचूँ’ (सेल्फी) से भी काम चल जाता है। कहने का भाव है कि संयुक्त परिवार आम बात थी। काश , रिश्ते, परिवार में  ऐसा हो पाता कि ‘साथ’ छोड़ना भी मना रहता। जो परिवार पहले संयुक्त था न जाने कब एकल हो गया और बस आधा – आधा शायद इसी को ‘आधुनिकता’ कहते हैं परिवार- संस्कार, विचार, प्यार, दोस्ती और देश के प्रति जिम्मेदारी का नाम है। वसुधैव कुटुम्बकम हमारी जरुरत है तथा आवश्यकता है। जो सामान हमारे देश में नहीं है वह हम दूसरे देशो से मंगा सकते हैं। दूसरे देशों में जाकर हम जीविकोपार्जन कर सकते हैं। इस भावना को बलवती होने के लिए परिवार की आवश्यकता पड़ती है या परिवार का योगदान रहता है। आप हैं तो परिवार है – मतलब व्यक्ति जीवित है। मृत्यु के बाद न तो परिवार होता है – ना समाज होता है – ना पहचान होती है। खुशियों की शुरुआत परिवार से होती है। जो अपनों का प्यार मिलता है तो वह परिवार में ही मिलता है। सफलता – असफलता, सुख-दुःख, सहनशीलता का अहसास परिवार में ही मिलता है। पुराणों में कहा गया है कि अयं निजः परो वेति गणना लघु चेतसाम्।  उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम्।। अर्थात् : यह मेरा है ,यह उसका है, ऐसी सोच संकुचित चित्त वोले व्यक्तियों की होती है; इसके विपरीत उदार चरित वाले लोगों के लिए तो यह सम्पूर्ण धरती ही एक परिवार जैसी होती है। इसे दूसरे प्रकार से हम इस तरह समझ सकते हैं हमारी सारी वसुधा ही एक परिवार है। उसमें केवल मनुष्य जाति ही नहीं, सभी जीव ओर वनस्पति भी आते हैं।  इतना ही नहीं नदी, पर्वत सभी दृश्यमान जगत भी शामिल है। उसमें मेरा परिवार सबसे छोटी इकाई है।

परिवार हमारे लिए भगवान का उपहार हैं और परिवार में ख़ुशी का संतुलन कर पाना यही जीवन की गुणवत्ता है, आदर्श परिवार के मुखिया के बारे में तुलसी दासजी ने कहा है- मुखिआ मुखु सो चाहिऐ खान पान कहुँ एक। पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित बिबेक।। परिवार को चलाने के लिए घर में किसी एक को त्याग करना पड़ता है। रामायण इसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण है। परिवार को संभालने के लिए भगवान  श्रीराम को वन जाना पड़ गया। घर के बुजुर्ग  ही हैं जो परिवार को जो हर हाल में संभालते  हैं।  हर परिस्थिति में हर बात का हल निकालते हैं उन बुजुर्ग की न कोई इच्छा न कोई जरूरत रहती है।  वे बिना किसी इच्छा के परिवार को संभाल कर चलाते हैं। प्रायः हर परिवार में यह धुरी माँ संभालती है। बिना किसी लालसा के वो परिवार को चलाती है। अधिकांश परिवारों का विघटन मैंने परिवार की माँ के जाने के बाद देखा है। अंत में हम इतना कह सकते हैं कि परिवार शब्द का आशय यहां पर वंश नहीं है बल्कि हमारे चतुर्दिक् मे जो लोग है अर्थात् कोई भी है पशु-पक्षी, पेड-पौधे सब हमारे  परिवार के सदस्य हैं।

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