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एक शिक्षक होने के नाते हम सब का यह दायित्व बनता है कि बच्चे को हम जिम्मेदार नागरिक बना सकें। बच्चे में गुणात्मक शिक्षा देने से ही वे भविष्य के जिम्मेदार नागरिक बनेंगे। गुणात्मक शिक्षा की सभी को प्राप्त हो यह व्यवस्था शासन तंत्र की है। जब तक गुणात्मक सुधार की व्यवस्था शासन तंत्र द्वारा शिक्षा – व्यवस्था में नहीं की जायेगी तब तक हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था में सुधार की गुंजाइश नहीं है। एक विद्यालय में मुझे किसी कार्य से जाना पड़ा और उसके एक दिन पहले शिक्षक दिवस था। मैंने बातो ही बातों में वहां के विद्यालय में कक्षा पांचवीं में पढनेवाले छात्रों से बातचीत की। बच्चों से पूछा कि शिक्षक दिवस क्यों मनाते है? उत्तर सुनकर मैं अचंभित हो गया। इस प्रकार के उत्तर की मैंने कल्पना नही की थी। बच्चों ने कहा कि गुरूजी को कलम देने के लिए हम सब शिक्षक दिवस मनाते हैं। मैंने सोचा कि बच्चे शायद हास-परिहास में ऐसा बोल रहे हैं। फिर अन्य बच्चों से पूछा तो पता चला कि शिक्षक दिवस कार्यक्रम तो मनाया गया है और बच्चों को पहले से बता दिया गया था कि कुछ उपहार लेकर गुरूजी को देना है। बच्चों ने सस्ता में कलम उपहार खरीदकर गुरूजी को उपहार में दे दिया। इस प्रकार उस विद्यालय में शिक्षक दिवस कार्यक्रम मना लिया गया। अब प्रश्न उठता है कि नयी पीढ़ी में हमने क्या सन्देश शिक्षक दिवस के अवसर पर दिया है? उसके बाद विद्यालय में मनाए जाने वाले अन्य कार्यक्रमों के बारे में जानकारी ली तो चौकानेवाले उत्तर सामने आए। इस सर्वेक्षण में जो एक बात स्पष्ट दीख रही थी कि ग्रामीण क्षेत्रो के बच्चों में ही इस प्रकार के उत्तर मिल रहे थे जबकि शहरी क्षेत्र के बच्चे ज्यादा मुस्तैदी से उत्तर दे रहे थे। ऐसा नहीं है कि हमारे शिक्षक समर्पित नहीं हैं। बच्चों को पढ़ाने-लिखाने के साथ-साथ जनगणना, आर्थिक गणना, बालगणना, पशुगणना, पल्स पोलियो से लेकर मतदाता सूची तैयार करना, मतगणना करना और चुनावी जिम्मेदारी तक तमाम राष्ट्रीय कार्यक्रमों को पूरी कुशलता से करने वाला शिक्षक इतना अकर्मण्य और अयोग्य कैसे हो सकता है? तो फिर क्या कारण शिक्षा व्यवस्था के गिरने का हो सकता है? प्राचीन काल में हमारे समाज में शिक्षा दान की बात थी , जबकि आज व्यवसाय का रूप ले चुकी है। निजी विद्यालयों में तो लूट-खसोट ही मची है और मजे की बात यह है कि अभिभावक भी लुटने के लिए तैयार बैठे हैं। पढ़ाने के नाम पर खुली लूट को होने देने के लिए अभिभावक मौन हैं। शिक्षा अपने समूचे स्वरूप में अराजकता, अव्यवस्था, अनैतिकता और कल्पनाहीनता का पर्याय बन गई है बच्चों में तो संस्कार है ही नहीं। बड़े होकर वे एक जिम्मेदार नागरिक नहीं बनकर असामाजिक तत्व के साथ मिल जाते हैं। “अग्रतः सकलं शास्त्रं , पृष्ठतः सशरं धनु” यह हमारा ध्येय वाक्य शिक्षा के क्षेत्र में था। इसमें शिक्षा तथा रक्षा दोनों ही राष्ट्र की हो जाती थी। अब हमारे देश के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारे लगाए जाते हैं। क्यों देश में मूल्य आधारित शिक्षा व्यवस्था का ह्रास हो रहा है? अब शिक्षा व्यवस्था का स्तर गिर रहा है तो इसके क्या कारण हो सकते हैं? ध्यान से देखने पर पता चलता है कि नित्य नए प्रयोग, शिक्षकों का असमय स्थानान्तरण, शिक्षकों की कमी, दोषपूर्ण शिक्षा नीति आदि आज शिक्षा के गिरते स्तर के लिए जिम्मेदार हैं। सरकार द्वारा शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक सुधार के लिए अनेक योजनायें शुरू की गयीं हैं। लेकिन इन योजनाओ की समीक्षा की आवश्यकता महसूस ही नहीं की गयी। आज हमारे शिक्षक पढ़ाने के बदले मध्यान्ह भोजन योजना, पोशाक वितरण योजना, मुफ्त पाठ्यपुस्तक वितरण योजना, मुफ्त सायकिल वितरण योजना, मुफ्त कम्पुटर वितरण योजना आदि कार्यों में लगे हुए हैं तथा बदनाम भी हो रहे हैं। आए दिन समाचार पत्रों में उपरोक्त वर्णित सरकारी योजनाओं में अनियमितता की शिकायत मिलती है। ऐसा नहीं है कि शिक्षकों में ईमानदारी नहीं है। लेकिन कागजी कार्यों में शिक्षक पीछे रह जाते हैं और मकडजाल में फंस कर बदनाम हो जाते हैं। आज के समय में सबसे आसान कार्य आरोप लगा देना है। बाद में उसे गलत साबित करना शिक्षकों का कार्य रह जाता है। ऐसे में हम कह सकते हैं कि अभी शिक्षक असहाय अवस्था में जी रहे हैं।
आजकल गुरु-शिष्य परम्परा समाप्त हो गयी है। प्राचीन काल का इतिहास देखने से पता चलता है कि पहले राजा हो रंक – सभी के लिए समान शिक्षा व्यवस्था थी। श्रीकृष्ण और सुदामा का उदाहरण हमारे सामने है। सुदामा गरीब तथा श्रीकृष्ण राजकुमार थे। लेकिन दोनों की शिक्षा-व्यवस्था संदीपनी मुनि के आश्रम में हुई थी। दोनों भिक्षाटन कर अपनी पढाई करते थे। दोनों आश्रम के लिए जंगल से लकड़ियाँ काट कर लाते थे। अमीर-गरीब में कोई भेद नहीं था। आज अमीर-गरीब में भेद स्पष्ट रूप से दीखता है। गरीबो के बच्चे सरकारी विद्यालयों में पढ़ते हैं तथा अमीरों के बच्चे निजी विद्यालयों में। ये भेद ही मुझे लगता है कि शिक्षा के स्तर को गिरा रहा है। शिक्षकों में शिक्षा-दान की भावना की समाप्ति हो रही है। उनमे कर्तव्य-बोध की भावना का संचार करना होगा। जब तक दिल से कोई बात नहीं होगी तब तक हम लाख प्रयास करते रहें कुछ भी समाधान निकलने वाला नहीं है। शिक्षा के गुणात्मक स्तर में कोई सुधार नहीं होगा। शिक्षकों के लिए ग्रामीण क्षेत्र में कम से कम 5 वर्ष की अनिवार्य सेवा की शुरुआत की जाए ताकि वे शहरी क्षेत्र के चकाचौंध से बाहर निकल सकें। सरकारी नियंत्रण को कम करने की आवश्यकता है।
अच्छी मूल्य वर्धित शिक्षा से हमें संस्कार की प्राप्ति होती है। बच्चे देश के जिम्मेदार नागिरक बनते है। ‘पैसे दो और शिक्षा पाओ’ इस नीति का परित्याग करना पड़ेगा। मैकाले आधारित शिक्षा प्रणाली को बदलने का समय आ गया है। आज हमारे देश में कौशल आधारित शिक्षा व्यवस्था को विकसित करने की आवश्यकता है।
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