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वीर कुंवर सिंह जयन्ती

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कविवर मैथिलीशरण गुप्तजी मनुष्य की परिभाषा देते हुए कहते हैं कि वही मनुष्य है जो मनुष्य के लिए मरे – बाकी सब पशु के समान है जो केवल अपने विषय में सोचे। इस धरती पर लोग आते हैं और चले जाते हैं लेकिन वे अमर रह जाते हैं जो इस धरती पर अपनी छाप छोड़ देते हैं। इतिहास उन्हीं को याद करता है। परोपकार में अपना जीवन लगाने वाले अमर हो जाते हैं।  अन्य लोगों के विषय में इतिहास जानकारी रखना भी नहीं चाहता तथा उनका नाम लेनेवाला भी कोई नहीं बचता है। ऐसे ही महापुरुषों की श्रेणी में थे बाबू वीर कुंवर सिंह। वीर कुंवर सिंह की याद में बिहार में बड़े पैमाने पर 23 अप्रैल को विजयोत्सव मनाया जाता है। इनसे युद्ध करते हुए ईस्ट इंडिया कंपनी की फौजें सात युद्धों में हार गयी थीं।

‘खूब लड़ी मर्दानी’ की तरह ही ‘कुंअर सिंह भी बडे वीर मर्दाने योद्धा थे । उनके ऊपर एक कविता को प्राचार्य मनोरंजन प्रसाद सिंह ने लिखी और जब यह 1929 में रामवृक्ष बेनीपुरी के संपादन में निकलने वाली ‘युवक’ में छपी, तो ब्रिटिश सरकार ने इसे तत्काल प्रतिबंधित कर दिया क्योंकि कविता की पंक्ति मुर्दों में भी जान डाल देने वाली थी। इस कविता की शुरुआत कुछ इस प्रकार थी –

था बूढा पर वीर वाकुंडा कुंवर सिंह मर्दाना था।
मस्ती की थी छिड़ी रागिनी आजादी का गाना था।।
भारत के कोने कोने में होता यही तराना था।
उधर खड़ी थी लक्ष्मीबाई और पेशवा नाना था।।
इधर बिहारी-वीर बांकुड़ा खड़ा हुआ मस्ताना था।
अस्सी बरस की हड्डी में जागा जोश पुराना था ।
सब कहते हैं, कुंवर  सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।

और अंतिम पद कुछ इस प्रकार से है :

दुश्मन तट पर पहुंच गए, जब कुंवर सिंह करते थे पार।
गोली आकर लगी बांह में, दायां हाथ हुआ बेकार।
हुई अपावन बाहु जान, बस काट दिया लेकर तलवार।
ले गंगे यह हाथ आज तुझको ही देता हूं उपहार। ।
वीर-भक्त की वही जान्हवी को मानो नजराना था ।
सब कहते हैं कुंबर सिंह भी बड़ा वीर मर्दाना था। ।

1777  में जन्मे कुंवर सिंह की मृत्यु 1857 की क्रांति में हुई थी। जब 1857 में भारत के सभी भागों में लोग ब्रिटिश अधिकारियो का विरोध कर रहे थे, तब बाबु कुंवर सिंह अपनी आयु के 80 साल पुरे कर चुके थे। इसी उम्र में वे ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के खिलाफ लढे। लगातार गिरती हुई सेहत के बावजूद जब देश के लिए लड़ने  का सन्देश आया, तब वीर कुंवर सिंह तुरंत उठ खड़े हुए और ब्रिटिश सेना के खिलाफ लढने के लिए चल पड़े, लढते समय उन्होंने अटूट साहस, धैर्य और हिम्मत का प्रदर्शन किया था। बिहार में 1957 का संगठन अवध और दिल्ली जैसा तो न था, फिर भी उस प्रांत में क्रांति के कई बड़े-बड़े केंद्र थे। पटना में जबर्दस्त केंद्र था जिसकी शाखाएं चारों ओर फैली थीं। पटना के क्रांतिकारियों के मुख्य नेता पीर अली को अंग्रेजों ने फांसी पर चढ़ा दिया। पीर अली की मृत्यु के बाद दानापुर की देसी पलटनों ने स्वाधीनता का ऐलान कर दिया। ये पलटनें जगदीशपुर की ओर बढ़ीं। बूढ़े कुंवर सिंह ने तुरंत महल से निकलकर शस्त्र उठाकर इस सेना का नेतृत्व संभाल लिया। इतिहासकार के अनुसार कुंवर सिंह आरा पहुंचे। उन्होंने आरा में अंग्रेजी खजाने पर कब्जा कर लिया। जेलखाने के कैदी रिहा कर दिए गए। अंग्रेजी दफ्तरों को गिराकर बराबर कर दिया गया। युद्ध में वीर कुंवर सिंह गंगा नदी की तरफ से आगे बढ़कर जगदीशपुर लौटना चाहते थे। एक अन्य सेनापति डगलस के अधीन सेना कुंवर से लड़ने के लिए आगे बढ़ी। नघई नामक गांव के निकट डगलस और कुंवर सिंह की सेनाओं में संग्राम हुआ। अंततः डगलस हार गया। कुंवर सेना के अपनी साथ गंगा की ओर बढ़े। कुंवर सिंह गंगा पार करने लगे। बीच गंगा में थे। अंग्रेजी सेना ने उनका पीछा किया। एक अंग्रेजी सैनिक ने गोली चलाई। गोली कुंवर सिंह के दाहिनी कलाई में लगी। विष फैल जाने के डर से इस बूढ़े शेर में इतना दम था कि बाएं हाथ से तलवार खींचकर अपने दाहिने हाथ को कुहनी पर से काटकर गंगा में फेंक दिया। 1857 के सिपाही विद्रोह में कुंवर सिंह सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावशाली स्वतंत्रता सेनानियों में से एक थे।

बिहार में कुंवर सिंह ब्रिटिशो के खिलाफ हो रही लढाई के मुख्य कर्ता-धर्ता थे। 22 और 23 अप्रैल को लगातार दो दिन तक लढते हुए वे बुरी तरह से घायल हो चुके थे, एल्किन फिर भी बहादुरी से लड़ते हुए उन्होंने जगदीशपुर किले से कम्पनी शासन का ध्वज निकालकर अपना झंडा फहराया। और 23 अप्रैल 1858 को वे अपने महल में वापिस आए लेकिन आने के कुछ समय बाद ही 26 अप्रैल 1858 को उन्होंने अपने इस नश्वर शरीर को छोड़ा।

कुंवर सिंह ने भारतीय आज़ादी के पहले युद्ध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, जिसके चलते इतिहास में उनके नाम को स्वर्णिम अक्षरों से भी लिखा गया। भारतीय स्वतंत्रता अभियान में उनके योगदान को हमेशा याद किया जाता है, 23 अप्रैल 1966 को भारत सरकार ने उनके नाम की स्मृति में डाक टिकट भी जारी किया। 1857 के सिपाही विद्रोह को अंग्रेजों ने बड़ी ही चालाकी से दबा दिया। लेकिन जो चिंगारी अंग्रेजी शासन के खिलाफ भड़की उसकी परिणति 1947 में आजादी के रूप में देखने को मिली। भारत की आज़ादी में इस महापुरूष के योगदान के लिए यह देश सदा इनका ऋणी रहेगा।

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