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मन रे, करु ‘संतोष’ सनेही। दोस्त तो दुनिया में एक है, प्रेमी तो दुनिया में एक है, अगर प्रेम ही करना हो तो उसीसे कर लेना, उसका नाम ‘संतोष’ है। ‘संतोष’ से बढ़कर दूसरा कोई और प्रेमी हो ही नहीं सकता। जो ‘संतोष’ से अपना जीवन यापन करता है वही महान है। जैसे फ्रिज हर चीजों को ठण्डा रखता है वैसे ही सन्तोष भी हर आदमी का मनोबल बढाता है। एक विद्यालय में ‘संतोष’ को लेकर एक जाँच परीक्षा ली गयी। आश्चर्य हुआ कि सन्तोष का ऐसा पाठ पढ़ा गया मुस्कुराता हुआ एक बच्चा जो कि एक रोटी को चार में बांट गया और चारों बच्चे काफी ख़ुशी से खा रहे थे। मन प्रफुल्लित हो गया। जब विद्यालय में ‘संतोष’ देखा तो सवाल उठा कि बाहरी दुनिया में अ’संतोष’ क्यों? ‘संतोष’ का अर्थ तृप्त , चैन या सुकून से है। ‘संतोष’ की स्थिति में ही ईश्वर का वास है। यदि दिमाग में ‘संतोष’ हो तो फिर उसके जैसा कोई सुख नहीं इस संसार में है। कहा गया है कि लोभ जैसी कोई बीमारी नहीं है और दया जैसा कोई पुण्य नहीं है। बहुत लोग ‘संतोष’ का अर्थ प्रयत्न नहीं करने से लगा लेते हैं या प्रयत्न करने के बाद जो मिल जाए उसमें प्रसन्न रहना है – इससे लगाते हैं। बहुत से लोग ‘संतोष’ की आड़ में अपनी अकर्मण्यता को छिपा लेते हैं। कहते हैं कि ‘संतोष’ प्रगति में बाधक है। एक ‘संतोष’ कायरता से उत्पन्न होता है नर्क है एक ‘संतोष’ आत्मज्ञान से उत्पन्न होता है जिसके सामने स्वर्ग भी तुच्छ है।
यह सोच रखते हैं कि जो कुछ भी मिल गया वही श्रेष्ठतम है। इससे बेहतर संभव ही नहीं है। जिसमे ‘संतोष’ होता है वह सब्र की मूर्ति, सच्चा आज्ञाकारी या कह सकते हैं कि उस व्यक्ति में तमाम मानवी अच्छाईयां मौजूद होती हैं। बुद्धिमान उन चीजों के लिए शोक नहीं करते जो उनके हाथ में नहीं है बल्कि उन चीजों के लिए खुश रहते हैं जो कर्म-नक्षत्र ने दिया है। अर्थात कर्म-नक्षत्र ने बुद्धिमान को ‘संतोष’ दिया है। क्योंकि जिसके पास ‘संतोष’ नामक धन आ गया उसके लिए बाकी धन धूलि के समान है। बहुत से सारे लोग दिव्यांग होते हैं फिर भी ‘संतोष’ के साथ जिन्दगी से लड़ रहे होते हैं। बिना किसी शिकायत के , अपूर्ण होने पर भी जिन्दगी में सुखी हैं। अपनी हैसियत और परिस्थिति के अनुसार लड़ रहे हैं – आगे बढ़ रहे हैं। कभी भी वे ईश्वर को दोष नहीं देते। एक कहावत है –
गौधन गजधन वाजिधन और रतन धन खान।
जब आवे ‘संतोष’ धन सब धन धूरि समान।।
अर्थात जब व्यक्ति के पास ‘संतोष’ रूपी धन आ जाता है तो सभी प्रकार के धन मिट्टी के समान प्रतीत होते हैं। किन्तु आजकल की दुनिया में तो देखने में आता है कि ‘संतोष’ किसी को नहीं है। सौ रुपये पाने वाला हज़ार की कामना करता है और हजार पाने वाला लाखों की। लाखों का मालिक करोड़पति बनना चाहता है। पैसे की इस दौड़ में हम सभी एक-दूसरे को पछाड़ने लगे हैं ।इसी दौड़ में हम ने सारे नियम, सिद्धान्त, शिष्टाचार ताक पर रख दिये हैं। अब कबीरदास जी की तरह यह बोलने वाला शायद ही मिलता है कि ‘साईं इतना दीजिए जामे कुटुम्ब समाए।’ अभी तो सब को सात पीढ़ी तक चले इतनी सम्पत्ति चाहिए। ‘संतोष’ होता ही नहीं है। ‘संतोष’म् परम: सुखम्। वह समृद्ध है जिसमें ‘संतोष’ है। पैसो से यदि ‘संतोष’ मिलता है तो – केवल वैभवशाली लोग ही खुश रहते। “खुशी” थोड़े समय के लिए “‘संतोष’” देती है, लेकिन “‘संतोष’” हमेशा के लिए “खुशी” देता है, इसीलिए “‘संतोष’” भरा जीवन जीना है और हमेशा खुश रहना है। ‘संतोष’ धारण करने वाला राजा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है और सनातन व्यवस्था जब भारत वर्ष में थी उस समय के ब्राह्मण में यदि अ’संतोष’ पैदा हो जाता था तो वो भी शीघ्र ही पतन की और उन्मुख हो जाता था। इच्छायें पूरी नही होती है तो क्रोध बढ़ता है और इच्छायें पूरी होती है तो लोभ बढ़ता है इसलिए जीवन की हर तरह की परिस्थिति में धैर्य और ‘संतोष’ बनाये रखना ही श्रेष्ठता है। कहा गया है कि मानव कितनी भी बनावट करे – अंधेरे में छाया, बुढ़ापे में काया और अंत समय मे माया किसी का साथ नहीं देती। कभी – कभी लगता है कि ‘संतोष’ एक कोरी कल्पना है – यक्ष है या आजकल के समय के लिए हास्य है। अंत में हम कह सकते हैं कि जब जीवन में ध्यान के फूल खिलते हैं, एकान्त जब सुहावनी लगने लगती है, तो जीवन ‘संतोष’ और कृतार्थता से भर जाती है। ‘संतोष’ – मन की वह अवस्था है जिसके कारण हम सदा प्रसन्न रहते और किसी बात की कामना नहीं करते हैं।
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