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ओजस्वी

www.jagran.com/blogs/Naye Vichar
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आजकल समाचार पत्रों में ‘ओजस्वी’ शब्द पढने को प्रतिदिन मिलता है कि अमुक राजनेता / राजनेताओं का भाषण सुनने के लिए लाखों की संख्या में पधारें। विज्ञापन इस प्रकार का होता है – “अमुक संसदीय सीट से अमुक जी का नामांकन तथा अमुक मुख्यमंत्रीजी का ‘ओजस्वी’ उद्बोधन सुनने के लिए लाखों की संख्या में पधारें”। मन में विचार आता है कि केवल राजनेताओं को छोड़कर किसी और का भाषण ‘ओजस्वी’ नहीं होता है? केवल राजनेताओं का भाषण या संबोधन ही क्यों ‘ओजस्वी’ होता है। तभी हमारे एक मित्र ने कहा कि स्थानीय मैदान में एक अमुक नेता आ रहे हैं और हम सभी उनका ‘ओजस्वी’ संबोधन सुनने के लिए जायेंगे। मैंने भी सहमति में सिर हिलाकर कहा कि ठीक है – यदि समय रहा तो चलेंगे। जब उक्त नेता का संबोधन सुना तो उसमे ‘ओजस्वी’ जैसा कुछ भी नहीं लगा। मैंने अपने मित्र से पूछा कि इसमें ‘ओजस्वी’ जैसा क्या है? उन्होंने कहा कि छोडिए भी – आप क्या लेकर बैठ गए। अरे, केवल बोलने के लिए कहा जाता है – ‘ओजस्वी’। मैं अपने मित्र की प्रतिक्रिया सुनकर स्तब्ध था। क्या ‘ओजस्वी’ जैसा शब्द केवल बोलने के लिए है? इस शब्द का क्या अर्थ है? क्या लोगों को पता है कि ‘ओजस्वी’ का अर्थ क्या है? मैंने आयोजक से पूछा कि जो ‘पट-विज्ञापन’ में आपने  जिस ‘ओजस्वी’ शब्द जिक्र किया है उसका अर्थ क्या है? आयोजक का कहना था कि ‘ओजस्वी’ के अर्थ के लिए गूगल में खोजना पड़ेगा। मैंने भी कहा कि यदि गूगल में ही ‘ओजस्वी’ शब्द को खोजना है तो ‘ओजस्वी’ भाषण तो घर में बैठकर भी किसी अन्य माध्यम से देखा – सुना जा सकता है। अर्थ तो हमें पता होना ही चाहिए। आयोजक ने कहा कि उतना समय तो नहीं है कि अर्थ खोजा जाए – समझा जाए और समझाया जाए। यह परम्परा चली आ रही है कि विज्ञापन देते वक्त ‘ओजस्वी’ लिखा जाए। एक व्यापक तथा असरदार शब्द को ऐसे ही लोग प्रयोग करते आ रहे हैं। तो सोचा कि आज का चिंतन ‘ओजस्वी’ शब्द के ऊपर किया जाए। ‘ओजस्वी’ संस्कृत शब्द है। शब्दकोष में इसका अर्थ प्रभावशाली, शक्तिशाली तथा जिसमे ओज हो इत्यादि से है। हमारे कुशल व्यवहार और ‘ओजस्वी’ विचार हमारे जीवन का दर्पण है। इसका जितना हम अधिक इस्तेमाल करेंगे हमारी चमक उतनी ही बढ़ जायगी। ‘ओजस्वी’ यानि प्रभावशाली तथा शक्तिशाली जो हमें वक्त बनाता है, गुमनाम को नाम दे जाता है। ताजपोशी भी ये ही कराता है। कभी ताज छीन भी लेता है। वक्त के पास कांटे रहते हैं। – कभी फूल गिराते हैं तो कभी चुभ जाते हैं। यहाँ ‘ओजस्वी’ का सम्बन्ध वक्त से हो गया। यदि वक्त अनुकूल है तो ओज बढेगा तथा यदि वक्त विपरीत है तो ओज घटेगा। ‘ओजस्वी’ सब समय है, विधि का बने विधान। पत्थर भी अपने समय, बन जाता भगवान। यदि अपने जीवन को हमें ‘ओजस्वी’ बनाना है तो मेरी नजर में श्री मद भगवद्गीता का अद्ययन नियमित करना होगा। इसमें केवल अपने से करने से भी उतना लाभ नहीं होगा – अन्य लोगों को भी शामिल करना होगा। क्योंकि इस महान ग्रन्थ की वाणी ‘ओजस्वी’ है। इसके पठन – पाठन, मनन – श्रवण से आसुरी और तामसी वृत्तियों का नाश होता है। विवेक बुध्दि संस्कार से ‘ओजस्वी’ वाणी ही ही इंसान के गुण दोष स्वतः बता देती है। यह कौशल हर किसी को नहीं मिलता है। ‘ओजस्वी’ शख्सियत ही हमारी खासियत है। जिसके चेहरे, भाषा, व्यवहार से तेज झलके, जब व्यक्ति का व्यवहार स्वच्छ, निर्मल, छलकपट रहित हो, उसके मुखारबिन्द पर तेज हो तो उस व्यक्ति की भाषा ‘ओजस्वी’ हो ही जाती है तथा तब संसार में उनके चाहनेवाले लोगों की संख्या बढ़ने लगती है। इसीलिए संसार में जो निष्पक्ष, निर्विवाद व्यक्ति होते हैं उनके चाहनेवालों की संख्या लाखों – करोड़ों में पहुँच जाती है। नेतृत्व में उपरोक्त बातों का समावेश होना चाहिए। जब देश के लिए हम नेता चुन रहे होते हैं तो उम्मीदवार में उपरोक्त गुण है या नही – एक जिम्मेदार मतदाता होने के नाते हम सभी का यह कर्तव्य बनता है। ‘ओजस्वी’ के साथ ज्ञान , कौशल, रवैया आदि सभी आपस में जुड़े हुए हैं क्योंकि ज्ञान तय करता है “क्या कहें” , कौशल तय करता है “कैसे कहें”,  रवैया तय करता है “कितना कहें”, बुद्धिमत्ता तय करती है “कहें या ना कहें”, इसके बाद ही ‘ओजस्वी’  वाणी का जन्म विवेकपूर्ण बुद्धि से होती है। सत्य बोलने से वाणी ‘ओजस्वी’ होती है तथा सांसारिक जीवन जीते हुए भी व्यक्ति तपस्वी हो जाता है। हमारे पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय अटलजी अपने ‘ओजस्वी’ वाणी के कारण लोगों के दिलो-दिमाग में छा जाते थे । अटल जी जहाँ भी जाते थे वहाँ से अपनापन का रिश्ता बना लेते थे। राष्टकवि रामधारी सिंह दिनकर जी अपनी ‘ओजस्वी’ रचनाओं से राष्ट्रीय चेतना का संचार करते थे। उनकी रचना की एक पंक्ति देखें:

तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,

पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।

हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,

वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।।

एक प्रगतिवादी और मानववादी कवि के रूप में उन्होंने ऐतिहासिक पात्रों और घटनाओं  को  ‘ओजस्वी’ और प्रखर शब्दों का तानाबाना दिया।

उपरोक्त उदाहरण आधुनिक काल के हैं। यदि प्राचीन काल की बात करें तो ‘ओजस्वी’ में आदि गुरु शंकराचार्य जी आते हैं जिन्होंने मात्र  ३२ वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ‘ओजस्वी’ शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गयी।

अंत में इतना ही कह सकते हैं कि ‘ओजस्वी’ काफी व्यापक शब्द है। इसे केवल बोलने के लिए प्रयोग न करें। ‘ओजस्वी’ होने के लिए काफी मेहनत करने की आवश्यकता है।

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