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‘नसीहत’’ शब्द का अर्थ उपदेश, अच्छी सम्मति , सत्परामर्श, सदुपदेश आदि है। ‘नसीहत’ शब्द का प्रयोग आजकल राजनीतिक गलियारे में काफी देखने को मिल रहा है। जिधर देखते हैं सब कोई एक दूसरे को ‘नसीहत’ ही देते दिखाई दे रहे हैं। हालाँकि मुझे राजनीति का कोई अनुभव है तो नहीं मगर घर में रूपवाहिनी में हमेशा ‘‘नसीहत’’ शब्द सुनाई देता है। खासकर आजकल के चुनावी मौसम में तो लगता है कि ‘नसीहत’ शब्द और बहार-सी आ गयी है। लोग दूसरों को ‘नसीहत’ की खुशबू तो देते हैं मगर खुद नहीं लेते। जिसके किरदार से शैतान भी शर्मिंदा हो वो भी ‘नसीहत’ देते हैं। जिसको कुछ नहीं भी आ रहा है – वह भी ‘नसीहत’ दे रहे हैं। आजकल के समाचार पत्रों पर एक नजर दौड़ते हैं तो मामला समझ में आ जाएगा।
दिल्ली के मुख्यमंत्री ने आप के विधायकों से बचने की ‘नसीहत’ दी। बहन मायावती ने समाजवादी पार्टी के कार्यकर्ताओं को अनुशासन में रहने की ‘नसीहत’ दी। राजस्थान में किसी एक समाज को चोर और टुच्चा कहने पर दूसरे समाज के लोगों ने संयम रखने की ‘नसीहत’ दी। बिहार में श्रीमान लालूजी के सुपुत्र को भाई वीरेंद्र ने संस्कार सीखने की ‘नसीहत’ दी। केन्द्रीय मंत्री रविशंकर प्रसाद को उनकी माँ ने नामांकन भरने के बाद विजयश्री के आशीर्वाद के रूप में जनता के लिए अच्छा काम करने की ‘नसीहत’ दी। नीतीश कुमार ने महिलाओं को एक विचित्र ‘नसीहत’ दे दी – यदि पुरुष आपके हिसाब से मतदान नहीं करते हैं तो उन्हें दिनभर उपवास करवा दें। मध्यप्रदेश में जीतू पटवारी ने शिवराज सिंह को प्रदेश की गरिमा रखने की ‘नसीहत’ दी। केन्द्रीय मंत्री श्री अरुण जेटली ने कांग्रेस को ‘नसीहत’ दी कि गाँधी परिवार को मोदीजी के विकास कार्यो से सीख लेनी चाहिए। शहीद करकरे का अपमान करने पर साध्वी प्रज्ञा को भोपाल से चुनाव नहीं लड़ने का ‘नसीहत’ कई लोगों ने दे दिया। उसी के जवाब में अशोक चक्र विजेता शहीद मोहन चन्द्र शर्मा का बाटला एनकाउंटर में अपमान करने वाले दिग्विजय सिंह को भी भोपाल से चुनाव नहीं लड़ने का ‘नसीहत’ दिया गया। शंकराचार्यजी ने भी साध्वी प्रज्ञा को अमर्यादित भाषा न इस्तेमाल करने की ‘नसीहत’ दी। कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती ने धारा ३७० से न खेलने की ‘नसीहत’ दे डाली। अब महबूबा को कौन समझाए कि कश्मीर भारत का है, भारत का था और भारत का रहेगा।
अब हम देखते हैं कि कितने आराम से राजनीतिक क्षेत्र में ‘नसीहत’ दी जा रही है। मजे की बात यह है कि कोई ‘नसीहत’ ले नहीं रहा। सभी देने के चक्कर में है। ‘नसीहत’ के बारे में बड़े-बूढ़े कहते थे – खुद मियां फजीहत , दूसरे को ‘नसीहत’। दूसरों को ‘नसीहत’ देना तथा आलोचना करना सबसे आसान काम है। सबसे मुश्किल काम है – चुप रहना और आलोचना सुनना। यह आवश्यक नहीं है कि हर लड़ाई जीती ही जाए – आवश्यक यह है कि हर लड़ाई से कुछ सीखी जाए। हमलोगों को ये ‘नसीहत’ घोट के पी जाना है कि कुछ सीखा जाए। पहले अपने गिरेबान में झाँक कर देखा जाए फिर दूसरों को ‘नसीहत’ दी जाए। सब कुछ हमें खबर है – ‘नसीहत’ नाम दीजिए – क्या होंगे हम ख़राब , जमाना ख़राब है। श्रीमती जी को समझा कर हार गया कि ‘नसीहत’ नर्म लहजे में ही अच्छी लगती है क्योंकि दस्तक का मकसद दरवाजा खुलवाना होता है – तोड़ना नहीं। मगर वे मानती नहीं है तथा उनकी ‘नसीहत’ तो फिर महाभारत काल के युद्ध की याद दिला देती हैं। तो मैं अपने मन को ‘नसीहत’ देता हूँ कि चुप रहने में ही भलाई है – क्योंकि जीत पाना तो मुश्किल है। अंत में इस शायरी के साथ समाप्त करता हूँ।
नसीहत देता हूँ इसका मतलब ये नहीं कि मैं समझदार हूँ,
बस मैंने गलतियां आपसे ज्यादा की है..!
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