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बच्चों में खाने-पीने की आदत

www.jagran.com/blogs/Naye Vichar
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रजनी को उसकी छोटी बेटी अनुजा को खाना खिलाने में काफी मशक्कत करनी पड़ती है। बेटी खाना खाती नहीं है। रोज मारना – पीटना तथा जबरदस्ती खाना खिलाना ही एकमात्र काम रह गया है। बेटी अनुजा का रोना – धोना चलते रहता है। रजनी भी जबरदस्ती उसके मुंह में ठूंसते रहती है। मेरे एक मित्र के घर में भी यही कहानी दुहराई जाती है। पूछने से पता चलता है कि बच्चे खाना ही नहीं खाते हैं। यह बात मुझे कुछ जंचती नहीं है। रजनी या मेरे मित्र जैसी स्थिति कमोबेश एक – दो घर में और देखने को मिला। मन कुछ सोचने पर मजबूर हुआ। अपने दिल से जानिए – पराए दिल का हाल। जब मैं छोटा था तो ऐसी बात नहीं थी। जो भी खाना मिलता था बड़े चाव के साथ खाता था। तब आजकल के बच्चों में ऐसी अरुचि क्यों ? आखिर बच्चे खाना क्यों नही खाते है? क्या कारण है? ध्यान से सोचने पर तथा पूछताछ करने पर पता चलता है कि बच्चों में खाने के बारे में अरुचि का मुख्य कारण अस्वास्थ्यकर भोजन का अधिक मात्रा में सेवन करना है। अस्वास्थ्यकर भोज्य पदार्थ आजकल बाजार में आसानी से उपलब्ध हैं। जो भी नातेदार – रिश्तेदार घर में आते हैं बच्चों के लिए अस्वास्थ्यकर भोज्य पदार्थ का एक दो पोटली लेकर आते हैं। बच्चों को खाने में वह अच्छा लगता है। लेकिन वह प्लास्टिक में बंद भोज्य पदार्थ बच्चों में नुकसान पहुंचा रहा है – यह जानकार भी हमलोग अनजान बन रहे हैं। बच्चों की भूख समाप्त हो रही है। चटक – मटक खाने के लिए बच्चे मचल रहे हैं। यदि बच्चे पौष्टिक भोजन नहीं करेंगे तो निशिचत रूप से उनका शारीरिक, मानसिक एवं बौद्धिक विकास प्रभावित होगा। नातेदार – रिश्तेदार को ख़राब लगे तो लगे लेकिन इतनी हिम्मत तो हमलोगों में होनी ही चाहिए कि उनको नम्रतापूर्वक मना कर दिया जाए कि इन सब चीजों को न ही लाया जाए तो बेहतर होगा। जानबूझ कर कुछ नहीं कहना – यह भी एक किस्म का अपराध है। जब बच्चे खाना खा रहे हों तो उस वक्त हम गुस्से को अपने नियंत्रण में रखें तथा कुछ भी न कहें तो ज्यादा उपयुक्त है। मैं मानता हूँ कि हर समय प्यार देते रहना भी मुश्किल है। डांटना भी जरुरी है। लेकिन डांटने का भी एक वक्त होता है। हर समय डांटने से बच्चों में डांट का फिर कोई असर नहीं होता है। एक बार यदि डांट बेअसर हो गया तो फिर काफी मुश्किल है। इसीलिए ‘डांट’ रूपी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग काफी सोच-विचार कर ही करना चाहिए। बच्चों के खान-पान पर नजर रखना माँ-पिताजी की जिम्मेदारी बनती है। पिताजी के बारे में इसीलिए कहा क्योंकि आजकल प्रायः माँ – पिता दोनों नौकरी या काम करते हैं। अतः पूर्ण जिम्मेदार केवल माँ को कहना भी नाइंसाफी है। बच्चों ने आज कितना ठंठा पेय पदार्थ लिया है। कुछ फलों का रस या दूध का सेवन किया है या नहीं ? यह सब भी देखना है। साथ ही बच्चों को खाने का महत्त्व भी समझाना पड़ेगा। अमुक चीज खाने से क्या फायदा है , अमुक चीज खाने से क्या – क्या हानि हो सकती है? इन सब बातों की जानकारी बच्चों को दी जा सकती है। भोज्य पदार्थ में भी विविधता लानी चाहिए। एक ही प्रकार का भोजन बार – बार देने से बच्चे उब सकते हैं। तब हो सकता है कि उनमे खाने के प्रति अरुचि उत्पन्न हो जाए। जब मैं छोटा था और जहाँ पर रहता था वहां पर सुबह के नाश्ते में विविधता आती थी। सातों दिन के लिए नाश्ता अलग-अलग था। चटनी भी हर दिन अलग-अलग बनती थी। दोपहर के लिए सब्जी भी प्रति दिन बदलती रहती थी। रात के भोजन में दूध की बनी सामग्री जरुर होती थी। कुल मिलाकर मैं यह कहना चाहता हूँ कि विविधता का ध्यान रखा जाता था। यदि उस वक्त रखा जा सकता था तो आजकल के समय में तो यह बिलकुल ही परेशानी वाली बात नहीं है। बच्चों को क्या भोजन करना है – इसका विकल्प भी नहीं देना है। कुछ माताजी को मैंने देखा है कि बच्चों से पूछकर भोजन बनाती हैं। यह स्थिति उन माँ के लिए ठीक है – जिनका बेटा बड़ा हो गया है तथा बाहर में नौकरी करता है। जो छोटा है तथा नादान है – ऐसे बच्चों से जब माँ खाना पूछकर बनाती है तो निश्चित रूप से उसका असर पड़ेगा ही। माताजी यह सोचती हैं कि मनपसन्द खाना बना कर देने से बच्चे ख़ुशी – ख़ुशी खा लेंगे। कुछ माताजी तो पुरस्कार की भी घोषणा कर देती है। अभी खाना खा लो तो अमुक खिलौने पापा से मंगवा दूंगी। बच्चों को खानपान का विकल्प मुहैया करा देने से ही परेशानी बढ़ जाती है। सीधे शब्दों में कह सकते हैं कि ‘जो बना है – खा लेना है’ यह आदत बच्चों में डाल देनी है। माँ यह मान कर चले कि बच्चा छात्रावास में रह रहा है। छात्रावास का जिक्र मैंने इसीलिए किया कि वहां पर विकल्प नहीं होता है तथा कम से कम मेहनत तथा खर्च में भोजनशाला के प्रभारी खाने की गुणवत्ता एवं पौष्टिकता पर ध्यान देते हैं। यदि छात्रावास का जिक्र मैंने कर दिया है तो खाने का एक वक्त भी निर्धारित कर दें। वैसे खाने – पीने का एक वक्त प्राय: हर घर में होता ही है। लेकिन यदि नहीं है तो निर्धारित कर देने से अधिक अच्छा है।

ऊपर वर्णित बातों पर ध्यान दिया जाए तो रजनी जैसी माँ की परेशानी से बचा जा सकता है तथा बच्चों का सर्वागीण – मानसिक, बौद्धिक, शारीरिक विकास सुनिश्चित हो सकेगा।

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