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आज अपने बड़े भाई से बातें संन्यस्थ तथा गृहस्थ पर कर रहा था। बातें करते वक्त अचानक बात बैराग्य पर आ कर रुक गयी। उन्होंने कहा कि बैराग्य पर कुछ लिख पाना कठिन है। इसके लिए बहुत गहराई में जाना पड़ेगा। फिर उन्होंने बैराग्य का अर्थ पूछा। मैंने कहा ,” प्राय: वैराग्य का अर्थ लिया जाता है कि घर बार छोड़ कर उदास हो कर गंगा किनारे बैठ जाना। “ उन्होंने कहा कि यह तो सटीक उत्तर नहीं हुआ। इसीलिए कुछ लोग कहते हैं कि हम तो गृहस्थ वाले हैं – बैराग्य का उत्तर या अर्थ नहीं बता सकोगे। आमतौर पर बैराग्य का अर्थ लोग विरक्ति से लगाते हैं। लेकिन केवल विरक्ति कहने से भी नहीं होगा। अतः प्रश्न फिर अनुत्तरित रह गया। फिर बैराग्य है क्या ? घर-बार, समाज, सोसायटी सब कुछ छोड़ कर जंगलों में या शहर से दूर निकल जाना ही बैराग्य है । जो घर में रहता है – वह बैराग्य नहीं है। लेकिन बड़े भाई इससे संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने बैराग्य के लिए अधिक अध्ययन करने की सलाह दी। अब मन में प्रश्न उमड़ने – घुमड़ने लगा कि आखिर बैराग्य है क्या ? बड़े भाई के अनुसार संसार में रहकर भी संसार में नहीं रहना ही बैराग्य है। विदेह की तरह रहना है। यहाँ विदेह का अर्थ देह होते हुए भी बिना देह के रहना है। हमारे समाज में जन्म से लेकर मृत्यु तक बैराग्य का सन्देश दिया जाता है। बैराग्य को काफी महिमामंडित किया जाता है। लेकिन अर्थ जान पाना काफी कठिन कार्य हो जाता है। पुनः बातचीत के क्रम को आगे बढ़ाते हुए बैराग्य का अर्थ को जानने का प्रयास किया। उस सब में भी वैराग्य का अर्थ है- त्याग देना। अब क्या त्याग करें ? सदगुणों का त्याग या दुर्गुणों का त्याग ? एक मत से उत्तर आता है – दुर्गुणों का त्याग । अब दुर्गुण क्या है ? दुर्गुण गलत मनोविकारों को, दुर्भावों और कुसंस्कारों को कहते हैं। अनावश्यक मोह, ममता, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, शोक, चिन्ता, तृष्णा, भय, कुढ़न आदि के कारण मनुष्य जीवन में बड़ी अशान्ति एवं उद्विग्नता रहती है – इसे ही दुर्गुण कहते हैं। चाहे कुछ ही क्षण के लिए ही सही, अपनी इन्द्रियों को विषय वस्तुओं के प्रति इस लालसा और ज्वरता से मुक्त कर लेना ही वैराग्य है। केवल कुछ क्षणों के लिए ही सही, मन को भौतिक इन्द्रिय सुख से समेटकर स्वयं में स्थापित कर लेना ही वैराग्य है। यदि मनुष्य दुर्गुणों से घिरा रहेगा तो बैराग्य की प्राप्ति नहीं कर सकेगा क्योंकि वैरागी मनुष्य ही अपने मानसिक संतुलन को ठीक रख सकता है, जीवन के सच्चे आनन्द का उपभोग कर सकता है, उन्नत, समृद्ध, यशस्वी, प्रतापी एवं पारलौकिक सम्पन्नता के लिए भी वैराग्य की आवश्यकता प्राथमिक रूप से होती है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कर्मयोग की जो शिक्षा दी है – वही सही मायने में बैराग्य है। अब गोस्वामी तुलसीदासजी ने जो बैराग्य का वर्णन किया है – वह देखने योग्य है। यह प्रसंग रामचरितमानस के बालकाण्ड से लिया गया है।
प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम।।
अर्थात हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है। यहाँ पर भगवान शिव को बैराग्य का भंडार बताया गया है। भगवान शिव गृहस्थ धर्म में रहते हुए भी बैरागी हैं। उन्हें संसार में किसी भी बात में मोह-माया नहीं है। अब कबीरदासजी के अनुसार बैराग्य को समझते हैं –
प्रेम बिना धीरज नहि, विरह बिना वैराग। ज्ञान बिना जावै नहि, मन मनसा का दाग।।
धीरज से प्रभु का प्रेम प्राप्त हो सकता है। प्रभु से विरह की अनुभुति हीं बैराग्य को जन्म देता है। प्रभु के ज्ञान बिना मन से इच्छाओं और मनोरथों को नहीं मिटाया जा सकता है। बैरागी जीवन जीना है तो शंकराचार्यजी द्वारा रचित निर्वाणषट्कम को अपनाना होगा। जिस प्रकार हरा पेड़ भारी होता है लेकिन पतझड़ आने के बाद वह हल्का हो जाता है। पेड़ में प्राण तो रहता है लेकिन सभी प्रकार से पेड़ हलका हो जाता है।
अब आजकल के बैरागियों को देखते हैं – उन्होंने तो बैराग्य की दुर्दशा ही कर दी है। घर छोड़ देते हैं। गृहस्थ जीवन से दूर भागते हैं लेकिन माया-जाल में फंसे रहते हैं। माया से नही निकल पाते हैं और कभी – कभी तो ऐसा लगता है कि गृहस्थ से अधिक इन बैरागियों को माया ने पकड लिया है। इतनी आसक्ति इन बैरागियों को माया में देखकर ही ताज्जुब होता है। समझ में नहीं आता है कि इन्होने बैराग्य लिया है या कुछ और व्रत लिया है। जीवन-यापन के लिए बैराग्य आजकल के समय में एक आसान माध्यम बन गया है। पता चलता है कि सेवा के नाम पर वैराग्य लिया गया है। तो फिर इन बैरागियों ने किसकी सेवा की है? प्राचीन काल के इतिहास पर नजर डालते हैं तो देखते हैं कि अनेक ऋषि-मुनियों ने अपना जीवन मानव-कल्याण के लिए न्योछावर कर दिया। ऋषि दधीचि का उदाहरण सामने है। देवताओं ने राक्षस रूपी आतंक के समाधान के लिए उनके अस्थियों का दान माँगा और ऋषि दधीचि ने सहर्ष दे दिया। सम्राट शिवि ने शरणागत की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया। धन्वन्तरि, अश्विनीकुमार, चरक, सुश्रूत, वाँगभट्ट, आदि ऋषियों ने शरीर विज्ञान, स्वास्थ्य, औषधि अन्वेषण और चिकित्सा में अपने सारे जीवन लगाये। जनता को रोग मुक्त करके उसे सुखी बनाने के लिए उन्होंने अपना जीवन उत्सर्ग कर दिया। यदि आज के समय में देखें तो कवि नागार्जुन ने मानवता की सेवा के लिए अपने ज्ञान का उपयोग किया। आज के बैरागी केवल अपने व्यापार को बढ़ाने में लगे रहते हैं। मेरे हिसाब से जो मनुष्य अपने जीवन का उपयोग मानवता की भलाई के लिए करे वही बैरागी है तथा यह कार्य बैराग्य की श्रेणी में आता है। अंत में इतना ही कह सकते हैं कि वास्तव में बैराग्य पर कुछ लिख पाना कठिन है। बड़े भाई ने सही कहा था।
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