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रिश्तों की अहमियत

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द्वापरयुग में भगवान श्रीकृष्ण का जीवन देखने से लगता है कि जीवन में कितने रिश्तों को उन्होंने मुस्तैदी के साथ निभाया है। इन रिश्तों को निभाने में उन्होंने एक मिसाल कायम की है या कह सकते हैं कि बेमिसाल हो गए हैं। हर एक रिश्ते की क्या अहमियत है? रिश्तों की अहमियत ये श्रीकृष्ण से सीखना चाहिए। सुदामा, रुक्मणी, बलदेव, अर्जुन, सुभद्रा, द्रौपदी, राधा, सब मिसालें हैं।

आजकल की व्यस्त जिंदगी में लोगों के पास समय कम है। इसके कारण रिश्तों की गर्मजोशी भी कम होती जा रही है। लोग आजकल अपने आपमें इतने मशगूल रहते हैं कि उन्हें आसपास अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों तक का एहसास नहीं रहता। ऐसे में आपसी रिश्तों में फिर से मजबूती के लिए हमें पुन: भगवान श्रीकृष्ण से सीखना पड़ेगा। उनके निभाए गए रिश्तों को ध्यान से समझना पड़ेगा।

सुदामा जी के साथ उन्होंने मित्रता रूपी रिश्तों को निभाया। आजकल के मित्र को लिखकर यदि मदद करने की इच्छा है तो  दूरभाष अथवा पत्र से जानकारी प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन हम देखते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं होता है। संदीपनी मुनि के आश्रम के बाद श्रीकृष्ण और सुदामा का कोई जिक्र नहीं मिलता है। जब सुदामा को मित्र की आवश्यकता पड़ती है तो सुदामा जाते हैं लेकिन यहाँ ध्यान यह देना है कि सुदामा संकोचवश कुछ मांगते नहीं है और श्रीकृष्ण सब समझ जाते हैं कि यदि मित्र उनके यहाँ वर्षों बाद आए हैं तो जरुर कुछ न कुछ बात रही होगी और बिना मांगे उन्हें जो चाहिए मिल जाता है। यहाँ दोनों ने एक दूसरे को समझा है या समझने की कोशिस की है। रिश्तों को बचाने के लिए यह बहुत मह्त्त्वपूर्ण है। अगर अपने मित्र की इच्छाओं की कद्र करेंगे, तो हमारे रिश्ते की डोर और मजबूत होगी।

द्रौपदी भरी सभा में बेबस तथा असहाय खडी है। उसके सामने पितामह, श्वसुर, आचार्य तथा पति , देवर सब अपने खड़े हैं। कोई भी अब सहायता करने के लिए तैयार नहीं है। सभी जगह से द्रौपदी को केवल निराशा ही हाथ लगती है। ऐसा लगता है कि अब उसकी इज्जत मिट्टी में मिल जायेगी। तब विश्वास के साथ गोवर्धनधारी को याद किया। रिश्तों में विश्वास का होना जरुरी है। यदि विश्वास में कमी आ रही है तो रिश्तों में दरार आनी निश्चित है। यदि उस वक्त श्रीकृष्ण नहीं आते तो परिणाम क्या होता इस कल्पना से ही मन सिहर उठता है। लेकिन विश्वास बना रहे इसीलिए श्रीकृष्ण आए। अब कुछ लोग कहते हैं कि वे पहले भी आकर द्रौपदी की इज्जत बचा सकते थे। पहले क्यों नहीं आए। सीधी सी बात है कि पहले द्रौपदी का विश्वास अपनों के ऊपर था।

बलदेवजी या बलरामजी को घूमना पसंद था। या वे भ्रमणशील थे। उनका स्वभाव तथा बलदेवजी के स्वभाव में कहीं भी किसी रूप में समानता नहीं है। इसी कारण दोनों की पहचान भी अलग – अलग है। लेकिन श्रीकृष्ण ने कभी भी उनके रास्ते में बाधा बनने का प्रयास नही किया। बड़े भाई के सम्बन्ध को काफी मधुरता के साथ निभाया। आज के सन्दर्भ में हम कह सकते हैं कि श्रीकृष्ण ने काफी अच्छे तरीके से समय को व्यतीत किया। अपनी बातों को काफी सलीके से वे साझा करते थे।

श्रीकृष्ण अपनी जिम्मेदारी को भी बखूबी समझते थे। बलदेवजी बहन सुभद्रा का विवाह दुर्योधन के साथ करना चाहते थे लेकिन सुभद्रा दुर्योधन को पसंद नहीं करती थी। श्रीकृष्ण यह बात जानते थे। वैवाहिक संबंधो में एक दूसरे को जानना बहुत आवश्यक है। इस बात को ध्यान में रखते हुए सुभद्रा का विवाह उन्होंने अर्जुन के साथ कराने में मदद की। वे एक भाई की जिम्मेदारी को समझते थे। इस जगह बलदेवजी असफल होते दीख रहे हैं। उन्होंने सुभद्रा से कोई सलाह – परामर्श नहीं लिया। परिवार में कौन क्या सोच रहा है – इस पर भी ध्यान होना चाहिए।

राधा जी के साथ उनका प्रेम जग जाहिर है। लेकिन यह आध्यात्मिक प्रेम है। प्रेम संबंधो में उन्होंने जो पवित्रता बनाए रखी है वह आज के समय के लिए एक उदाहरण है। निष्कपट, निश्छल प्रेम का अनूठा उदाहरण उन्होंने प्रस्तुत किया है। बिना विवाह किए भी दोनों का नाम एक दूसरे के साथ जुड़ गया। बिना राधा के साथ श्रीकृष्ण के नाम की कल्पना भी हम नहीं कर सकते हैं।

अर्जुन रिश्ते में बहनोई एवं मित्र दोनों है। वे चाहते तो रिश्तेदारी निभाने के लिए खुलकर पांडवो का साथ महाभारत युद्ध में दे सकते थे। लेकिन तब इतिहास उनके ऊपर हँसता। दुर्योधन से भी उनकी मित्रता थी। दुर्योधन ने भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ा था। अतः उन्होंने बड़ी सावधानी से गुट निरपेक्ष रहने का फैसला ले लिया। उनके इस निर्णय से वे तटस्थ रहे तथा काफी चालाकी से अपने रिश्तेदारी को निभाया तथा पांडवों को विजयश्री अपने प्रबंधन से दिलवा दिया।

पत्नियों के साथ भी उन्होंने काफी शालीनतापूर्वक रिश्तों को निभाया। रुक्मिणी तथा सत्यभामा में कभी किसी बात को लेकर विवाद न हो जाए – इसका उन्होंने हमेशा ध्यान रखा। सत्यभामा सत्राजित की पुत्री थीं जिन्होंने श्रीकृष्ण पर स्यमन्तकमणि चुराने का झूठा आरोप लगाया था और अपने उसी अपराध के मार्जन के लिए अपनी पुत्री का विवाह श्रीकृष्ण से किया था । रुक्मिणीजी विदर्भ राजकुमारी थीं । सत्यभामा और रुक्मिणीजी ने अपने लिए श्रीकृष्ण से प्यार किया इसलिए कहीं-न-कहीं उन्हें श्रीकृष्ण की पत्नी होने का गर्व भी हुआ । भगवान श्रीकृष्ण ने उनके गर्व का हरण भी किया।

 

अंत में इतना कह सकते हैं कि सामाजिक संरचना में रिश्तों का महत्वपूर्ण स्थान है। प्रेम के महीन रेशों से बुने ये रिश्ते अत्यंत नाजुक होते हैं। भाई-बहन, दोस्त, पति-पत्नी, चाचा, मामा इत्यादि रिश्तों का रूप चाहे जो भी हो, ये सभी विश्वास, आदर, ईमानदारी एवं समर्पण की माँग करते हैं। रिश्तों की इस बेल को स्नेह, त्याग एवं विश्वास के जल से सींचना अनिवार्य है, नहीं तो यह असमय ही मुरझा जाती है।

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