Menu
blogid : 26906 postid : 16

शिक्षा में नवाचार

www.jagran.com/blogs/Naye Vichar
www.jagran.com/blogs/Naye Vichar
  • 42 Posts
  • 0 Comment

शिक्षा का अर्थ क्या है? सत्य की खोज। बेशक परम सत्य की तलाश न सही, जो वस्तु फिलहाल सामने मौजूद हो, उसी के सत्य की तलाश सही। विद्यार्थी स्वाभाविक तौर पर जिज्ञासु होते हैं। आध्यात्मिक प्रक्रिया को विद्यार्थियों में अनुशासन लाने का काम करना चाहिए, ताकि वे किसी चीज पर विश्वास न करें लेकिन इसी के साथ वे किसी के प्रति अभद्रता व असम्मान की भावना भी न रखें।

अब नवाचार का अर्थ जान लेते हैं:- नवाचार (नव+आचार) अर्थात नया विधान का अर्थ किसी उत्पाद प्रक्रिया या सेवा में थोड़ा या कुछ बड़ा परिवर्तन लाने से है। नवाचार के अंतर्गत कुछ नया और उपयोगी अपनाया जाता है जैसे कोई नई विधा या नई तकनीक । प्रत्येक वस्तु या क्रिया में परिवर्तन प्रकृति का नियम है। परिवर्तन से ही विकास के चरण आगे बढ़ते हैं। परिवर्तन एक जीवंत गतिशील एवं आवश्यक प्रक्रिया है जो समाज को वर्तमान व्यवस्था के प्रति और अधिक व उपयोगी तथा सार्थक बनाती है। इन्हीं सब से नवचेतना और उत्सुकता का संचार होता है । इसकी प्रक्रिया विकासवादी और नवगत्यात्मक होती है। परिवर्तन और नवाचार एक दूसरे के पारस्परिक पूरक या पर्याय है “नवाचार कोई नया कार्य करना ही मात्र नही है वरन किसी भी कार्य को नए तरीके से करना भी नवाचार है ” । परिवर्तन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में होते हैं। इन्ही परिवर्तनों से व्यक्ति और समाज को स्फूर्ति, चेतना, ऊर्जा एवं नवीनता की उपलब्धि होती है। निश्चित रूप से शिक्षा में भी परिवर्तन या नवाचार जरुरी है।

तकनीकी नवाचार : पहला बड़ा परिवर्तन कंप्यूटर का आगमन है जिसने एक तरफ तो ज्ञान की एक पूरी शाखा का विकास करके ज्ञात की सीमाओं को बढ़ा दिया है और शिक्षकों का भार ‘न्यूनतम समय में आधुनिकतम प्रणालियों की उपयोग क्षमता के विकास की आवश्यकता’ के साथ बढ़ गया है। कहना न होगा कि सिखाने और सीखने की गतिवृद्धि के लिए अत्यंत कारगर उपाय के रूप में कंप्यूटर स्लाइड शो, फ्लैश फिल्मों आदि के साथ अनिवार्य होता जा रहा है। इंटरनेट ने तो और भी कमाल कर दिया है । गूगल और फेसबुक मानवीय मस्तिष्क की तथ्यात्मक समृद्धि को अनावश्यक और अतीत की बात बनाने में जुटे हैं । ऐसा लगने लगा है कि छात्रों को आंकड़े और अन्य वस्तुनिष्ठ तथ्यों के लिए स्मृति पर निर्भर कराना स्मरण शक्ति का दुरुपयोग बनता जा रहा है ।

सेवा नवाचार : निजी विद्यालय के संचालक छात्रों से पुस्तक, कलम, लेखनी, अभ्यास पुस्तिका , पोशाक आदि की आपूर्ति करते हैं तथा बदले में बच्चो के अभिभावकों , माता – पिता से एक मोटी रकम वसूलते हैं। कई विद्यालयों में तो दिन में दो – तीन बार पोशाक ही बदलनी पड़ती है। ऐसा करने से शिक्षा में क्या गुणात्मक सुधार होगा – मुझे पता नहीं लेकिन विद्यालय संचालक को आय का एक जरिया उपलब्ध हो जाता है । अगर हम अपने देश की पांरपरिक शिक्षा-प्रणाली की ओर मुड़कर देखेंगे तो माता-पिता या अभिभावक अपने बच्चों को एक ऐसे शिक्षक या आचार्य या गुरु को सौंप दिया करते थे, जिसे वह न सिर्फ एक ज्ञानी इंसान के तौर देखते थे, बल्कि एक सिद्ध या कहें विकसित प्राणी के रूप में भी देखते थे। माता-पिता या अभिभावक जानते थे कि अगर उनके बच्चे ऐसे इंसान के हाथों में हैं तो वे स्वाभाविक रूप से खिल उठेंगे। प्राचीन काल में शिक्षा दान के रूप में थी आजकल व्यवसाय बन गया है. गुरूजी या अध्यापक के भरण – पोषण का जिम्मा समाज या शासन के पास रहता था लेकिन आजकल वे काफी पेशेवर हो गए हैं. दान की बात तो हम सोच भी नहीं सकते।

 

शिक्षक के व्यवहार में नवाचार: अभी तक हम लोग सिर्फ बच्चों को शिक्षित करने के बारे में सोचते रहे हैं। सबसे महत्वपूर्ण चीज है कि शिक्षकों को लगातार विकसित होना चाहिए और निखरते रहना चाहिए। शिक्षकों के लिए दिशा – निर्देशन शिविर या कार्यक्रम का आयोजन एक निश्चित अन्तराल पर होते रहना चाहिए । निजी विद्यालयों में तो यह चलता रहता है लेकिन शासकीय विद्यालयों में इसका सर्वथा अभाव है।

आनंददायी शिक्षण : अगर हम अपने जीवन से सारे ‘लेकिन’ को निर्ममतापूर्वक बाहर निकाल दें तो आनंददायी शिक्षण के लिए खुशनुमा माहौल बनाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया हो जाएगी। अगर हम प्रसन्नचित्त हैं तो हम जो भी करेंगे, जो भी बनाएंगे, जिसकी भी रचना करेंगे, उसमें यह खूबी दिखेगी।

 

अब समय आ गया है कि हम अपनी शिक्षा पद्धति के बारे में पुनर्विचार करें और उसे नए सिरे से तराशें, क्योंकि हमारे पास वर्तमान में पर्याप्त आर्थिक साधन हैं। हमारे पास आज दुनिया तक पहुंचने का ऐसा मौका है जो अब से पहले कभी नहीं था और हमारे पास ऐसा नेतृत्व है, जो इन तमाम बदलावों को साकार करने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ है। हमें अपनी शिक्षा प्रणाली को इस मौलिकता के साथ तैयार करना होगा जो हमारे सामाजिक हिसाब और जरूरतों के मुताबिक हो, क्योंकि हजारों सालों से यह धरती जिज्ञासुओं व साधकों की रही है।

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh