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आधार अनोखा मैंने खींचा, खून दिया पानी से सींचा,
कतरा – कतरा सुख चुका, यह ह्रदय भी मेरा टूट चुका,
फिरभी न हरियाली आई, वो ख़ुशी मुझे न मिल पाई,
टूटा ये ह्रदय, हाँ तो भी सही, दिल बोल रहा उम्मीद जगा,
इस “आधार” को अब आधार बना “बंजर भूमि पर फूल खिला”
…
यहाँ कोई नहीं माली ऐसा, जो धरा पे यह उपकार करे,
सूत्रों को करके और सरल, इस कला का जो उद्धार करे,
मैंने कितनों को है देखा, अकाट्य सूत्र गढ़ते हुए,
व्यक्तित्व का विकास किये, सफलता पथ चढ़ते हुए,
अदभुत रहस्य यह चीज नहीं, जिसे सोच रहें सब एक बला,
दिल खोज उन्हें जो जाने कला, “बंजर भूमि पर फूल खिला”
…
दूर कहीं जब दीप जले, रोशन होता सारा संसार,
यही वो दीपक है जिसमें, पथ ढूंढ़ रहा मेरा आधार,
अध्यन करें इस बात पे की, आगे को कैसे बढ़ना है,
उत्साहवर्धक परिणाम दिखे, यह दावा कैसे गढ़ना है,
उदास न हो उजियारे को, खोजन में दे मन प्राण गला,
अँधेरे में एक दीप जला, “बंजर भूमि पर फूल खिला”
…
चलो कृषि करें उस हल से अब, बलराम का जिसपर हाथ पड़ा,
मिलकर बोयें उस अन्न को अब, किस्मों में जो हो एक खरा,
पिछली भूलों को भी हम, एक सिख समझ कर अब बाँटे,
प्रखर बना इस बुद्धि को, सारे कंटक को अब काटें,
देर करें न बोने में, उम्मीद का सूरज दिख रहा ढला,
ऐसा कोई अब तीर चला, “बंजर भूमि पर फूल खिला”
…
ANAND PRAVIN
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