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जब जन्म लिए तब मानव थे, लेकिन अब शंका होती है,
आ जाए मन में अहंकार, मौलिकता क्षण-क्षण खोती है,
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अपनी निज की अभिलाषा को, संयमित नहीं रख पाते हैं ,
क्यों समझ द्रव्य को सोम-सुधा, हम गरल निगलते जाते हैं,
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तम में भटके-भटके से हैं, अपने ही विश्वासों से डर,
इसलिए झूठ पर, मिथ्या पर, बल डाल रहे यूं बढ़-बढ़ कर,
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कृत्रिम आभा पर मुग्ध, उसे पाने को हम ललचाते हैं,
क्यों सत्य मार्ग को छोड़ पतन के पथ पर बढ़ते जाते हैं,
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है आज मनुज में होड़ बड़ी, तन भूषण कौन सजायेगा,
हो रहे निरादृत मात-पिता, सर विपदा कौन उठायेगा,
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परिवर्तन को आधार समझ, सब विद्युत् गति से भाग रहे,
दन – दन गोली की बौछारें, जन के सीनों पर दाग रहे,
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कहकर बातें नैतिकता की, गर्वित हो हम इठलाते हैं,
पर आये कर्म परीक्षा जब, भीतर – भीतर घबराते हैं,
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सब कुछ है गलत भला ऐसा, कहकर कैसे बच पायेंगे,
आचरण अनैतिक करने से, हम भी दानव बन जायेंगे,
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एक ही ह्रदय सब पाते हैं, जीवन है प्रेम लुटाने को,
हम व्यर्थ उसे क्यों जाने दें, बस ऊँच-नीच दर्शाने को,
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आओ सब पुनः विचारें मिल, यह प्रश्न समूचे जग का है,
जन सारे के सारे अच्छे हैं, “बस दोष ज़रा कलयुग का है”
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आनंद प्रवीन
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