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“निजीकरण”—भविष्य पे वार

राजनीति
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“ये” देखने में तो नयी, इक सोच का प्रतिक है,
पर फक्र न करो की इसमें “नीचता” अधिक है,
अधीर हो ये सोच जो, दिखा रहे समाज में,
हम और क्या कहें ये है, दरिद्र की आवाज में,
बेच  के ये देश को, है पूँजी अब जुटा रहें,
मात्रभूमि का है देखो, दाम ये लगा रहें I

फक्र है इन्हें की, “अर्थशास्त्र” के है हम धनी,
और देश “शास्त्र” में निपुणता की है कमी,
बड़े – बड़े ये लोग कृत्य, कर रहे बड़े – बड़े,
इनका जो बस चले तो, बेच दे सब खड़े – खड़े,
देश का ये धन को है, विदेश में लुटा रहे,
मात्रभूमि का है देखो, दाम ये लगा रहें I

ढूंढ़ के कहाँ से लाये, हम नयी आवाज़ को,
जो जलाये वास्तविक, समृधि की मशाल को,
निजीकरण के नाम पे, जो खेल है ये चल रहा,
इस खेल में, सामर्थ है, मोम सा पिघल रहा,
माचिस जला के ये उसे, मशाल है बता रहें,
मात्रभूमि का है देखो, दाम ये लगा रहें I

तेल, कोयले को और खनिज को हैं बेचते,
और अपने मूँछ पे, है ताव कैसे खींचते,
दावत निकाल घर में है, घुसपेठिये बुला रहें,
और उन्नति का इसको, साज है बता रहें,
संसाधनों को बेच हमको, मुर्ख है बना रहे,
मात्रभूमि का है देखो, दाम ये लगा रहें I

यही नहीं रुका तो देखो, क्या गजब ये ढाएगा,
जब आपके ही धन से, कोई आपको सताएगा,
अर्थशास्त्र का सवाल, है नहीं यहाँ बड़ा,
इस सोच में “जो सोच है”, उसी का है किया धड़ा,
ये पीठ पीछें हँस रहें, और हमें रुला रहें,
मात्रभूमि का है देखो, दाम ये लगा रहें I

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ANAND PRAVIN

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