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“यह कविता एक कहानी है उस धुंए कि जो लक्ष्य कि तलाश में निकला है उसका लक्ष्य है गगन जिसके ऊपर जाने कि चाहत वो रखता है इसी कहानी को मैंने कविता रूप में समझाने कि कोशिश कि है………और कोशिश कि है जीवन के संघर्ष को दर्शाने कि जिसमें सब सफलता को पाने में लगे हुए है………लक्ष्य कि प्राप्ति ही ध्येय होनी चाहिए चाहे लक्ष्य कुछ भी हो “
देखो है उठ रहा धुआँ, पुन: गगन की चाह मे,
ये सोच के उठा है कि, इतिहास वो बनाएगा,
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प्रारंभ में वो वीर था, था तेज़ उसकी आँख में ,
धुंए का रूप लेके वो, छुपा हुआ था राख में,
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जब हमने राख को छुआ, निकल गया था वो धुआँ,
निकल गगन को देख के, विराट सा वो था हुआ,
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वो सोच में पड़ा ही था, अभी ये पग धरा ही था,
की देखता है सामने, थी मौत उसकी आ रही,
हवाओं का प्रचंड समूह, देखो उसे समां रही,
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ये देख वो हैरान था, अवश्य वो अनजान था,
ये कौन काल आ गया, नयी – नयी दिशाओं से,
न जाने कैसे निकलूंगा, इन कातिली हवाओं से,
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लक्ष्य तो गगन ही था, उचाईयों का नमन ही था,
पर सवाल ये उठा था की, क्या लक्ष्य अपना पायेगा,
या लक्ष्य की ही चाह में, वो काल को समायगा,
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जो हो रहा उससे निकल, था होश में वो आ गया,
दे मात वो हवाओं को, निचे गगन के छा गया,
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अध्याय था शुरु हुआ, भूमिकाओं पे ही जीत थी,
हरा के इन हवाओं को, मिली नयी इक सिख थी,
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की इन पवन के झोंकों से, अगर उसे निकलना था,
तो डर को अपने आप से, कदम तले कुचलना था,
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अब खोल पूरी आँख को, लगा वो नापने गगन,
तो पाया उसका आदि तो, अंत से भी दूर था,
यहाँ धुंए का देख लो, घट गया गुरुर था,
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ये साफ़ – साफ़ दिख रही, थी चिंता उसके माथे पे,
जीतने की चाह तो, बची थी उसके हाथों पे,
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धुंए ने अपने आप को, ज़रा(थोड़ा) किया समेट के,
तूफ़ान के इक वेग से, निकल परा वो लेट के,
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प्रयास जोरदार था, गगन पे एक वार था,
लेकिन गगन विशाल था, ये वार तो बेकार था,
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अब धुएं ने जान ली, थी बात ये प्रयास कर,
अंत अब है आ चूका , समाप्त कर निकास कर,
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लहू – लुहान होके वो, वापस वहीँ पे जा गिरा,
जहां कोई नया धुआँ, हवाओं में ही था घिरा,
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धुएं ने आँखें मुंद ली, तो पाया सामने गगन,
विशाल और समृद्ध वो, अजर – अमर अजेय गगन,
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ये देख वो अचेत था, की गगन ने उसे बुला लिया,
जो जीतेजी न हो सका, वो मर के उसने पा लिया,
…
ये पूछ बैठा वो धुआँ, गगन क्या मुझे बतायगा,
जो बात मेरे मन में है, उसे जरा सुनायगा,
…
है कौन सा इंसान वो, जो जीत पाया है तुझे,
है कौन सा महान वो, जिसने हराया है तुझे,
…
ये सुन गगन था हँस पड़ा, बोला जहाँ तू है खड़ा,
तू देख ले ज़रा धरा, अकेला तू ही है खड़ा,
…
प्रयास तो कई हुए, मुझे जीतने के वास्ते,
मगर अभी तलक नहीं, बनाय मैंने रास्ते,
…
आखरी ये शब्द तू, एक बार जान लो,
महान बनना है, यदि, तो लक्ष्य पे ही जान दो I
ANAND PRAVIN
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