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पूर्वाचल के मुसलमानों को सहेजने की सियासत

अनुभूति
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आनन्द राय गोरखपुर : पूर्वाचल के मुसलमानों को सहेजने की नयी कवायद शुरू हो गयी है। विभिन्न राजनीतिक दलों में बंटे मुसलमानों को एक मंच पर लाने की तरकीब लगायी जा रही है। पहल दिल्ली जामा मस्जिद के शाही इमाम अहमद बुखारी ने एक गैर राजनीतिक संगठन बनाकर की है। अब उनकी आवाज को गांव-गांव में पहंुचाने की कोशिश शुरू हो गयी है।
    राजनीति में हाशिये पर पहंुच गये कुछ मुस्लिम नेताओं ने अभियान की कमान संभाल ली है। पिछले विधानसभा व लोकसभा चुनाव पर नजर डालें तो पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिम नेताओं की रहनुमाई कम हुई है। उनके प्रतिनिधित्व में कमी की समीक्षा नये सिरे से हुई है। रहनुमाओं का मानना है कि उनकी तादाद तो अधिक है लेकिन खेमों में बंटने के कारण ताकत उभर नहीं रही है। इसी कारण अब गैर राजनीतिक संगठनों से फिर से एक जुट होने का आह्वान किया जा रहा है। शाही इमाम के आगाज के बाद गोरखपुर में पूर्व विधायक और सपा के जिलाध्यक्ष रहे डा.मोहसिन खान की सक्रियता बढ़ी है। उनके साथ नगर निगम में पार्षद दल के नेता जियाउल इस्लाम समेत कई मुस्लिम नेता आगे बढे़ हैं। फरवरी माह में बड़े सम्मेलन की तैयारी हो रही है। अभियान कितना कारगर होगा, यह तो नहीं कहा जा सकता है लेकिन अतीत पर नजर डालें तो शाही इमाम के पिता के फतवे का काफी असर रहा है। उनके फतवे ने सियासी बदलाव भी किये हैं।
           गौरतलब है पूर्वी उत्तर प्रदेश में मुस्लिमों के कई छोटे राजनीतिक दल वजूद में हैं। बसपा से बगावत करने के बाद पूर्व मंत्री डा. मसूद ने नेशनल लोकतांत्रिक पार्टी बनायी। कुछ दिनों बाद दल दो टुकड़ों में बंट गया। एक की कमान मसूद के हाथ में थी और दूसरे का नेतृत्व अरशद ने संभाल लिया। आजमगढ़ में लोकसभा चुनाव के दौरान उलेमा कौंसिल का सियासी चेहरा सामने आया। और इसके बैनर पर चुनाव मैदान में उतरे उम्मीदवारों ने प्रभावित किया। बड़हलगंज के चर्चित सर्जन डा. अयूब ने भी राजनीतिक मोर्चेबंदी की और उनकी पीस पार्टी ने बलिया से लेकर बाराबंकी तक खलबली मचा दी। सपा पहले से ही मुसलमानों की हमदर्द थी। इस तरह मुसलमानों के बीच कई खेमे बन गये। इसी खेमेबंदी को दूर करने के लिए शाही इमाम के सहारे कुछ ताकतें गोलबंद हो रही हैं।

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